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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् आर्यभाषा-अर्थ-(द्वन्द्वे) द्वन्द्व समास में (अजादि-अदन्तम्) अच् जिसके आदि में और अकार (अत्) जिसके अन्त में है, ऐसे पद का (पूर्वम्) पहले प्रयोग करना चाहिये।
उदा०-उष्ट्रश्च खरश्च एतयो: समाहार उष्ट्रखरम् । ऊंट और गधे का समूह। उष्ट्रश्च शशकश्च एतयो: समाहार उष्ट्रशशकम् । ऊंट और खरगोश का समूह ।
सिद्धि-उष्ट्रखरम् । उष्ट्र+सु+खर+सु । उष्ट्रखर+सु। उष्ट्रखरम्।
यहां उष्ट्र' शब्द अजादि और अकारान्त है इसलिये इसका पहले प्रयोग किया गया है, खर शब्द का नहीं। यहां विभाषा वृक्षमृग०' (२।४।१२) से द्वन्द्व समास में एकवद्भाव होता है। ऐसे ही-उष्ट्रशशकम् । अल्पाच
(५) अल्पान्तरम् ।३४। प०वि०-अल्पान्तरम् १।१।
स०-अल्पोऽच् यस्मिन् तत्-अल्पाच् (बहुव्रीहि:)। द्वे इमे अल्पाचौ, इदमनयोरतिशयेन अल्पाच् इति अल्पान्तरम् (तद्धितवृत्ति:)। 'द्विवचनविभज्यो०' (५ ।३।५७) इति तरप्-प्रत्ययः ।
अनु०-द्वन्द्वे, पूर्वमिति चानुवर्तते । अन्वयः-द्वन्द्वेऽल्पान्तरं पूर्वम्।। अर्थ:-द्वन्द्वे समासेऽल्पान्तरं पदं पूर्व प्रयोक्तव्यम् ।
उदा०-प्लक्षश्च न्यग्रोधश्च तौ-प्लक्षन्यग्रोधौ। धवश्च खदिरश्च पलाशश्च ते-धवखदिरपलाशा: ।
___ आर्यभाषा-अर्थ-(द्वन्द्वे) द्वन्द्व समास में (अल्पान्तरम्) दो पदों में जो थोड़े अच् (स्वर) वाला पद है उसका (पूर्वम्) पहले प्रयोग करना चाहिये।
उदा०-प्लक्षश्च न्यग्रोधश्च तौ-प्लक्षन्यग्रोधौ। पिलखन और बड़ का योग। धवश्च खदिरश्च पलाशश्च ते-धवखदिरपलाशा: । धौ, खैर और ढाक का योग।
सिद्धि-प्लक्षन्यग्रोधौ । प्लक्ष+सु+न्यग्रोध+सु। प्लक्षन्यग्रोध+औ। प्लक्षन्यग्रोधौ ।
यहां प्लक्ष पद में दो अच् और न्यग्रोध पद में तीन अच् हैं अत: अल्पाच्तर प्लक्ष पद का पूर्व प्रयोग किया गया है। ऐसे ही- 'धवखदिरपलाशा:' में भी जान लेवें।
विशेष-यहां 'अल्पाचतरम्' पद में तर' प्रत्यय का निर्देश गौण है। केवल दो पदों में ही नहीं अपितु दो से अधिक पदों के प्रयोग में भी 'अल्पाच् पद का पूर्व प्रयोग
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