SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 422
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः ३८ १ इतरेतरयोग और समाहार अर्थ में द्वन्द्व समास होता है। समुच्चय - ईश्वरं गुरुं च भजस्व । तू ईश्वर का भजन और गुरु की सेवा कर । अन्वाचय- भिक्षामट गां चानय । भिक्षा ले आ और गौ को भी ले आना। इतरेतरयोग और समाहार के उदाहरण ऊपर लिख दिये हैं । तू समासपदानां प्रयोगविधिः (१) उपसर्जनं पूर्वम् | ३० | उपसर्जनम् प०वि० - उपसर्जनम् १ । १ पूर्वम् १ । १ । अर्थः-अस्मिन् समासप्रकरणे उपसर्जनसंज्ञकं पदं पूर्वं प्रयोक्तव्यम् । पूर्वप्रयोगविधानं परप्रयोगनिवृत्त्यर्थम् । उदा० - द्वितीया- कष्टं श्रित इति कष्टश्रितः । तृतीया शंकुलया खण्ड इति शंकुलाखण्ड: । चतुर्थी यूपाय दारु इति यूपदारु | पञ्चमी - चोराद् भयमिति चोरभयम्। षष्ठी - राज्ञः पुरुष इति राजपुरुषः । सप्तमी - अक्षेषु शौण्ड इति अक्षशौण्डः । आर्यभाषा - अर्थ - इस समास प्रकरण में (उपसर्जनम्) उपसर्जन संज्ञावाले पद का (पूर्वम्) पहले प्रयोग करना चाहिये । उदा०-द्वितीया - कष्टं श्रित इति कष्टश्रितः । कष्ट को प्राप्त हुआ, इत्यादि । सिद्धि-कष्टश्रितः । कष्ट+अम्+श्रित+सु । कष्टश्रित+सु । कष्टश्रितः । 'प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम् (१।२1४३ ) इस सूत्र से समास प्रकरण के सूत्रों में जो पद प्रथमा विभक्ति से निर्दिष्ट किया गया है, उसकी उपसर्जन संज्ञा की है । जैसे 'द्वितीया श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नैः' (२ । १/२४ ) इस समासविधायक सूत्र में 'द्वितीया' पद को प्रथमा विभक्ति से निर्दिष्ट किया गया है अत: उसकी उपसर्जन संज्ञा है । अत: 'कष्टं श्रित:' में द्वितीयान्त 'कष्टम्' शब्द का पहले प्रयोग किया जाता है और श्रित शब्द का पश्चात् प्रयोग होता है। ऐसा ही अन्य उदाहरणों में समझ लेवें । उपसर्जनं परम् (२) राजदन्तादिषु परम् । ३१ । प०वि० - राजदन्त - आदिषु ७ । ३ परम् १ । १ । सo - राजदन्त आदिर्येषां ते राजदन्तादय:, तेषु - राजदन्तादिषु (बहुव्रीहि: ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003296
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy