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द्वितीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः अन्वय:-कर्मणि च षष्ठी सुप् सुपा सह न समासः ।
अर्थ:-'उभयप्राप्तौ कर्मणि' इत्येवं या षष्ठी विहिता तदन्तं च समर्थेन सुबन्तेन सह न समस्यते।
। उदा०-आश्चर्यो गवां दोहोऽगोपालकेन। रोचते मे ओदनस्य भोजनं देवदत्तेन। साधु खलु पयस: पानं यज्ञदत्तेन। विचित्रा सूत्रस्य कृति: पाणिनिना।
आर्यभाषा-अर्थ-(कमणि) उभयप्राप्तौ कर्मणि' (२।३।६६) इस सूत्र से जो षष्ठी विभक्ति विधान की गई है, उस सुबन्त का (च) भी समर्थ सुबन्त के साथ समास (न) नहीं होता है।
उदा०-आश्चर्यो गवां दोहोऽगोपालकेन । जो गोपाल नहीं है उसके द्वारा गौओं का दुहना आश्चर्य की बात है। रोचते मे ओदनस्य भोजनं देवदत्तेन । देवदत्त का ओदन का खाना मुझे प्यारा लगता है। साधु खलु पयस: पानं यज्ञदत्तेन । यज्ञदत्त का दूध का पीना अच्छा है। विचित्रा सूत्रस्य कृति: पाणिनिना। पाणिनि की सूत्र-रचना विचित्र है।
सिद्धि-आश्चर्यो गवां दोहोऽगोपालकेन। यहां कर्तकर्मणो: कृतिः' (२।३।६५) से 'दोहः' इस कृदन्त के प्रयोग में कर्ता अगोपालक और कर्म गौ इन दोनों में षष्ठी विभक्ति प्राप्त होती है, किन्तु उभयप्राप्तौ कर्मणि' (२।३।६६) से कर्म में षष्ठी विभक्ति हो जाती है और कर्ता में कर्तकरणयोस्तृतीया' (२।३।१८) से तृतीया विभक्ति होती है। प्रकृत सूत्र से उक्त कर्म में विहित षष्ठी विभक्ति के समास का प्रतिषेध किया गया है। कर्मणि षष्ठी
(८) तृजकाभ्यां कर्तरि १५ । प०वि०-तृच्-अकाभ्याम् ३।२ कर्तरि ७ १ ।
स०-तृच् च अकश्च तौ-तृजकौ, ताभ्याम्-तृजकाभ्याम् (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)
अनु०-षष्ठी, न, कर्मणि इति चानुवर्तते। अन्वय:-कर्मणि षष्ठी कतरि तृजकाभ्यां सुब्भ्यां न समास: ।
अर्थ:-कर्मणि या षष्ठी तदन्तं सुबन्तं कर्तरि वर्तमानाभ्यां तृजकाभ्यां समर्थाभ्यां सुबन्ताभ्यां सह न समस्यते।
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