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द्वितीयाध्यायस्य प्रथमः पादः (८) शब्दप्रादुर्भाव । पाणिनिशब्दस्य प्रकाश इति इतिपाणिनि। पाणिनि शब्द को प्रकाशित करना।
(९) पश्चात् । रथानां पश्चाद् इति अनुरथं पादातम् । रथों के पीछे पैदल ।
(१०) यथा । इस शब्द के योग्यता, वीप्सा, पदार्थानतिवृत्ति और सादृश्य ये चार अर्थ हैं। योग्यता-रूपस्य योग्यमिति अनुरूपम् । रूप के अनुसार। वीप्सा-दिनं दिनं प्रति इति प्रतिदिनम् । वीप्सा-व्यापकता। पदार्थानतिवत्ति-शक्तिमनक्रम्येति यथाशक्ति। शक्ति को न लांघकर । सादृश्य-'यथाऽसादृश्ये' (२।११७) से सादृश्य अर्थ में समास का प्रतिषेध किया गया है।
(११) आनुपूर्व्य । ज्येष्ठस्यानुपूर्व्यमिति अनुज्येष्ठं प्रविशन्तु भवन्तः । ज्येष्ठ की अनुपूर्वता से आप यहां प्रवेश करें।
(१२) यौगपद्य । युगपच्चक्रमिति सचक्रं धेहि । तू एक साथ चक्र को धारण कर। (१३) सादृश्य । सदृशः सख्या इति ससखि । सखा के सदृश।
(१४) सम्पत्ति। ब्रह्मण: सम्पत्तिरिति सब्रह्म बाभ्रवाणाम् । बाभ्रवजनों का ब्राह्मणों के साथ आत्मभाव है। क्षत्रस्य सम्पत्तिरिति सक्षत्रं शालकायनानाम् । शालकायनजनों का क्षत्रियों के साथ आत्मभाव है। यहां सम्पत्ति शब्द का समृद्धि अर्थ नहीं है, अपितु आत्मभाव अर्भ है।
(१५) साकल्य। तृणानां साकल्यमिति सतृणमभ्यवहरति। तृणों सहित खाता-पीता है।
(१६) अन्त । अग्नेरन्त इति साग्नि अधीते । अग्नि शब्द के अन्त तक पढ़ता है। महाभाष्यस्यान्त इति समहाभाष्यं व्याकरणमधीते । महाभाष्य के अन्त तक व्याकरणशास्त्र का अध्ययन करता है।
सिद्धि-(१) अधिस्त्रि। अधि+सु+स्त्री+सुप्। अधि+स्त्री। अधिस्त्री+सु । अधिस्त्रि+सु । अधिरित्र।
यहां 'सुपो धातुप्रातिपदिकयो:' (२।४।७१) से सु और सुप् प्रत्यय का लुक् होता है। इस सूत्र से अधि अव्यय का स्त्री सुबन्त के साथ अव्ययीभाव समास, उसकी कृत्तद्धितसमासाश्च' (२।२।४६) से प्रातिपदिक संज्ञा, स्वौजस्०' (४।१।२) से सुप्-उत्पत्ति, 'अव्ययीभावश्च' (२।२।१८) से नपुंसकभाव, ह्रस्वो नपुंसके प्रातिपदिकस्य (१।२।४७) से स्त्री' शब्द को ह्रस्वत्व. 'अव्ययीभावश्च' (२।२।४२) से अव्ययीभाव समासवाले प्रातिपदिक का अव्ययत्व और 'अव्ययादाप्सुप:' (२।४।८२) से 'सुप्' का 'लुक्’ होता है।
(२) उपगुरुकुलम् । उप+सु+गुरुकुल+डस्। उप+गुरुकुल। उपगुरुकुल+सु। उपगुरुकुल+अम्। उपगुरुकुलम् ।
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