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________________ द्वितीयाध्यायस्य प्रथमः पादः पदविधिः (१) समर्थः पदविधिः।१। प०वि०-समर्थ: १।१ पदविधि: १।१। स०-समर्थः शक्तः। संगत: सम्बद्धो वाऽर्थो यस्य स समर्थः (उत्तरपदलोपी-बहुव्रीहिः)। पदस्य विधिरिति पदविधिः । पदयोर्विधिरिति पदविधिः । पदानां विधिरिति पदविधिः । पदाद् विधिरिति पदविधिः । पदे विधिरिति पदविधि: (सर्वविभक्त्यन्तस्तत्पुरुष:) । अन्वय:-पदविधि: समर्थः। अर्थ:-अस्मिन् व्याकरणशास्त्रे य: कश्चित् पदविधि: श्रूयते स समर्थो वेदितव्य: । स पुन: समासादि: । वक्ष्यति-द्वितीया श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नै: (२।१।२४) इति । कष्टं श्रित इति कष्टश्रितः । समर्थग्रहणं किम् ? पश्य देवदत्त ! कष्टम्, श्रितो विष्णुमित्रो गुरुकुलम्, इत्यादि। __ आर्यभाषा-अर्थ-इस व्याकरणशास्त्र में जो कोई (पदविधि:) पद-विषयक विधि सुनाई देती है, वह (समर्थः) समर्थ विधि ही जाननी चाहिये। वह विधि समास आदि है। जैसे कि आगे द्वितीया श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नः' (२।१।२४) आदि सूत्रों से समास का विधान किया जायेगा। जहां दो पदों का एकार्थीभावरूप सामर्थ्य होता है, वहां समास हो जाता है, जैसे- 'कष्टं श्रित इति कष्टश्रित:' और जहां इन दो पदों का परस्पर एकार्थीभाव सम्भव नहीं है, वहां समास विधि नहीं होती है, जैसे कि 'पश्य देवदत्त! कष्टम्, श्रितो विष्णुमित्रो गुरुकुलम् हे देवदत्त ! तू कष्ट को देख कि यह कितना बड़ा कष्ट है और विष्णुमित्र गुरुकुल में पहुंच गया। यहां कष्टम् और श्रितः' पद का कोई एकार्थीभाव नहीं है, अत: ये पद 'असमर्थ हैं, इसलिये इनका समास नहीं होता है। विशेष-(१) सामर्थ्य एकार्थीभाव और व्यपेक्षा के भेद से दो प्रकार का होता है। जहां अनेक पदों का एक पद, अनेक स्वरों का एक स्वर और अनेक विभक्तियों की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003296
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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