________________
प्रथमाध्यायस्य चतुर्थः पादः
२६१ पचतः । दो राम पकाते हैं। रामा: पचन्ति। सब राम पकाते हैं। (स्थानी का प्रयोग न होने पर) पचति। वह पकाता है। पचतः । वे दोनों पकाते हैं। पचन्ति। वे सब पकाते हैं।
सिद्धि-(१) स पचति । पच्+लट् । पच्+शप्+तिम् । पच्+अ+ति। पचति । यहां युष्मद् और अस्मद् शब्द से भिन्न तद्' शब्द के उपपद होने पर 'डुपचष् पाके (भ्वा० उ०) धातु से लट्' प्रत्यय और उसके स्थान में प्रथम पुरुष एकवचन तिप्' आदेश है। इसी प्रकार-तौ पचतः । ते पचन्ति । राम: पचति । रामौ पचत: । रामा: पचन्ति ।
(२) स्थानी तद्' शब्द का प्रयोग न होने पर भी तद्' शब्द आदि की विवक्षा में धातु से प्रथम पुरुष होता है-पचति । पचतः । पचन्ति । संहिता-संज्ञा
परः सन्निकर्षः संहिता।१०६ । प०वि०-पर: १।१ सन्निकर्ष: ११ संहिता ११ । पर:=अत्यन्तः । सन्निकर्ष: समीपता।
अर्थ:-वर्णानां य: पर: सन्निकर्षः स संहितासंज्ञको भवति । उदा०-दध्यत्र। मध्वत्र ।
आर्यभाषा-अर्थ-(पर:) वर्णों की जो अत्यन्त (सन्निकर्षः) समीपता है, उसकी (संहिता) संहिता संज्ञा होती है।
उदा०-दध्यत्र । दही यहां पर है। मध्वत्र । मधु यहां पर है।
सिद्धि-(१) दध्यत्र । दधि+अत्र। दध्य्+अत्र। दध्यत्र। यहां 'इको यणचि' (६।१।७७) से इ के स्थान में य् आदेश होकर वर्णों की अत्यन्त समीपता हो जाती है। इसलिये इसे 'संहिता' कहते हैं। इसी प्रकार-मधु+अत्र। मध्व्+अत्र-मध्वत्र।।
(२) जहां वर्णों की अत्यन्त समीपता नहीं होती उसे पदपाठ कहते हैं-दधि अत्र । मधु अत्र। अवसान-संज्ञा
विरामोऽवसानम् ।११०। प०वि०-विराम: ११ अवसानम् १।१ । स०-विरम्यतेऽनेनेति विराम:=वर्णानामुच्चारणाभावः ।
रणाभावः।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org