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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (३) वर्मायति। वर्मन्+क्यष्। वर्मन्+य। वर्मय। वर्मा+य। वर्माय+लट् । वर्माय+शप्+तिम्। वर्माय+अ+ति। वर्मायति।
यहां 'वर्मन्' शब्द से लोहितादिडाज्भ्य: क्यष्' (३।१।१३) से क्यष्' प्रत्यय करने पर नकारान्त वर्मन्' शब्द की पदसंज्ञा होती है। अत: पूर्ववत् न्' का लोप हो जाता है। यहां पूर्ववत् दीर्घ होकर वर्माय' धातु से पूर्ववत् लट्' प्रत्यय होता है। यहां 'वा क्यषः' (१।३।९०) से विकल्प से परस्मैपद होता है। पक्ष में आत्मनेपद-वर्मायते। सिति प्रत्ययेऽपि
सिति च।१६। प०वि०-सिति ७१ च अव्ययपदम् । स०-स इत् यस्य स:-सित्, तस्मिन्-सिति (बहुव्रीहि:)। अन्वय:-सिति च पदम्।
अर्थ:-सिति च प्रत्यये परत: पूर्वं पदसंज्ञकं भवति। 'यचि भम्' (१।४।१८) इति भ-संज्ञां वक्ष्यति, तस्यायं पुरस्ताद् अपवादः ।
उदा०-भवदीय: । ऊर्णायुः।
आर्यभाषा-अर्थ-(सिति) सित् प्रत्यय परे होने पर (च) भी पूर्ववर्ती शब्द की (पदम्) पद संज्ञा होती है। यचि भम् (१।४।१८) से भ-संज्ञा का विधान किया जायेगा। यह उसका पूर्व-अपवाद है।
उदा०-भवदीय: । आपका। ऊर्णायुः । ऊनवाला (ऊनी)।
सिद्धि-(१) भवदीयः। भवत्+छस्। भवत्+ ईय। भवद्+ईयं। भवदीय+सु। भवदीयः।
यहां 'भवत्' शब्द से 'भवतष्ठक्छसौं' (४।२।११५) से सित् छस् प्रत्यय करने पर 'भवत्' की पद संज्ञा होती है। पद संज्ञा होने से 'झलां जशोऽन्ते' (८।२।३९) से त् को जश् द् हो जाता है। 'आयनेय०' (७।१।२) से 'छ्' के स्थान में 'ईय्' आदेश होता है।
(२) ऊर्णायुः । ऊर्णा+युस् । ऊर्णा+यु। ऊर्णायु+सु। ऊर्णायुः ।
यहां 'ऊर्णा' शब्द से ऊर्णाया यस' (५।२।१२३) से सित् युस्' प्रत्यय करने पर ऊर्णा' शब्द की पद संज्ञा होने से यचि भम् (१।४।१८) से प्राप्त भ-संज्ञा नहीं होती है, अत: 'यस्येति च (६।४।१४६) से आकार का लोप भी नहीं होता है।
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