________________
२०६
पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् परमामेडितम् (८।१।१२) से द्वितीय पटत्' शब्द की आमेडित संज्ञा नित्यमामेडिते डाचि (वा० ६।१।९६) से प्रथम पटत् शब्द के त् को पररूप एकादेश होता है और डाच् प्रत्यय के परे होने पर द्वितीय पटत् शब्द के टि-भाग का टे:' (६।४।१४३) से लोप हो जाता है। तत्पश्चात् डाच्-प्रत्ययान्त पटापटा' शब्द से लोहितादिडाज्भ्य: क्यष् (३।१।१३) से क्यष्' प्रत्यय होता है। क्यष्-प्रत्ययान्त लोहिताय' शब्द से लट्' प्रत्यय और उसके स्थान में परस्मैपद 'तिप्' आदेश होता है। पक्ष में आत्मनेपद त' आदेश भी हो जाता है-पटपटायते। धुदादिभ्यः (भ्वा०आ०)
धुभ्यो लुङि।६१। प०वि०-युद्भ्य: ५।३ लुङि ७१। अनु०-'वा' इत्यनुवर्तते। अन्वयः-द्युद्भ्यो वा परस्मैपदं कर्तरि लुङि।
अर्थ:-धुदादिभ्यो धातुभ्यो विकल्पेन परस्मैपदं भवति कर्तृवाचिनि लुङि परत:।
उदा०-(धुत्) व्यधुतत्। व्यद्योतिष्ट। (लुट) अलुठत् । अलोठिष्ट, इत्यादि।
आर्यभाषा-अर्थ-(युद्भ्यः) द्युत् आदि धातुओं से परे (वा) विकल्प से (परस्मैपदम्) परस्मैपद होता है। (कतीरे) कर्तृवाची (लुङि) लुङ् प्रत्यय परे होने पर।
उदा०-(द्युत्) व्यात्। व्यद्योतिष्ट। वह चमका। (लु) अलुठत् । अलोठिष्ट । उसने लूटा।
सिद्धि-(१) व्यधुतत् । द्युत्+लुङ्। अट्+द्युत्+च्लि+तिम्। अ+युत्+अ+त। अ+द्युत्+अ+त् । अद्युतत् । वि+अद्युतत्व्यातत्।
यहां 'द्युत दीप्तौ (भ्वा०आ०) धातु से लुङ्' (३।२।११०) से लुङ् प्रत्यय और उसके स्थान में परस्मैपद तिप् आदेश होता है। च्लि लुङ् ि (३।१।४३) से च्लि प्रत्यय और 'पुषादिद्युतालुदित: परस्मैपदेषु' (३।१।५५) से च्लि के स्थान में अङ् आदेश होता है।
(२) व्यद्योतिष्ट । द्युत्+लुङ् । अट्+द्युत्+च्लि+त। अ+द्युत्+सिच+त। अ+द्युत्+इट्+स्+त। अ+द्योत्+इ++ट । अद्योतिष्ट । वि+अद्योतिष्ट व्यद्योतिष्ट।
यहां 'धुत द्वीप्तौ' (भ्वा०आ०) धातु से पूर्ववत् 'लुङ्' प्रत्यय और उसके स्थान में आत्मनेपद त' आदेश होता है। लि लुङि' (३।१।४३) से 'च्लि' प्रत्यय और 'च्ले: सिच्’ (३।१।४४) से 'च्लि' के स्थान में 'सिच्' आदेश और उसको
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org