________________
प्रथमाध्यायस्य तृतीयः पादः
૧૧ अर्थ:-क्रियाफले कर्बभिप्राये सति स्वरितेतो जितश्च धातो: कतरि आत्मनेपदं भवति।
उदा०-(स्वरितेत:) यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु (भ्वा०उ०) यजते। (जित:) षुञ् अभिषवे (स्वा०उ०) सुनुते ।
आर्यभाषा-अर्थ-(क्रियाफले) क्रियाफल (कभिप्राये) कर्ता को अभिप्रेत होने पर (स्वरितत्रितः) स्वरितेत् और जित् धातु से (करि) कर्तृवाच्य में (आत्मनेपदम्) आत्मनेपद होता है।
उदा०-(स्वरितेत) 'यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु' (भ्वादि०3०) यजते। अपने स्वर्ग आदि फल के लिये यज्ञ करता है। (जित्) पुञ् अभिषवे (स्वा०उ०) सुनुते । अपने लिये सवन करता है। सवन=सोम आदि ओषधियों का रस निकालना।
सिद्धि-(१) यजते । यज्+लट् । यज्+शप्+त। यज्+अ+ते। यजते। __यहां 'यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु' (भ्वा०उ०) स्वरितेत् धातु से ‘लट्' प्रत्यय और उसके स्थान में आत्मनेपद त' आदेश होता है।
(२) सुनुते । सु+लट् । सु+श्नु+त। सु+नु+ते। सुनुते।
यहां पुत्र अभिषवे' (स्वा० उ०) जित् धातु से लट' प्रत्यय और उसके स्थान में आत्मनेपद 'त' आदेश होता है। स्वादिभ्यः श्नुः' (३।११७३) से इनु विकरण प्रत्यय है।
विशेष-पाणिनिमुनि के धातुपाठ में उदात्तेत्, अनुदात्तेत् और स्वरितेत् भेद से तीन प्रकार की धातु पढ़ी है। उदात्तेत् का अर्थ परस्मैपदी धातु है। अनुदात्तेत् का अर्थ आत्मनेपदी धातु है। स्वरितेत् का अर्थ उभयपदी धातु है। यदि क्रिया का फल कर्ता को अभप्रेत हो तो स्वरितेत् धातु से आत्मनेपद हो जाता है; अन्यथा परस्मैपद होता है।
इसी प्रकार पाणिनिमुनि के धातुपाठ में कुछ धातु जित् पढ़ी गई हैं। यदि क्रिया का फल कर्ता को अभिप्रेत हो तो जित् धातु से आत्मनेपद हो जाता है; अन्यथा परस्मैपद होता है। वद व्यक्तायां वाचि (भ्वा०प०)
अपाद् वदः७३। प०वि०-अपात् ५।१ वद: ५।१। अनु०-'कभिप्राये क्रियाफले' इत्यनुवर्तते। अन्वयः-क्रियाफले कभिप्रायेऽपाद्वद: कर्तरि आत्मनेपदम् ।
अर्थ:-क्रियाफले कभिप्राये सति अपात् परस्मात् वद-धातो: कतरि आत्मनेपदं भवति।
उदा०-धनकामो न्यायमपवदते।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org