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________________ १८० पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सिद्धि-(१) जिज्ञासते। यहां ज्ञा अवबोधने' धातु से 'धातोः कर्मण: समानकर्तृकादिच्छायां वा' (३।११७) से सन्' प्रत्यय, सन्यडो:' (६।१।९) से धातु को द्विर्वचन और अभ्यास-कार्य होकर जिज्ञास' सन्नन्त धातु से लट्' प्रत्यय और उसके स्थान में आत्मनेपद त' आदेश होता है। (२) शुश्रूषते। यहां 'श्रु श्रवणे' धातु से पूर्ववत् सन्' प्रत्यय और 'अज्झन्गमां सनि' (६।४।१६) से धातु को दीर्घ होता है। शेष सब कार्य पूर्ववत् है। (३) सुस्मर्षते । यहां स्मृचिन्तायाम् धातु से पूर्ववत् सन्' प्रत्यय और द्विवचन होकर अज्झनगमां सनि' (६।४।१६) से धातु को दीर्घ, उसे उदोष्ठ्यपूर्वस्य' (७।१।१०२) से उकार आदेश 'र्वोरुपधाया दीर्घ इकः' (८।२१७६) से दीर्घ 'आदेशप्रत्यययोः' (८१३ १५९) से षत्व होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है। . (४) दिक्षते । यहां इशिर् प्रेक्षणे' धातु से पूर्ववत् सन् प्रत्यय, धातु को द्विर्वचन, अभ्यास कार्य, उरत् (७।४।६६) से अभ्यास के ऋ' को अकार आदेश और उसे 'सन्यत: (७।४।७९) से इकार आदेश होता है। वश्चभ्रस्ज०' (८।२।३६) से 'दृश्' धातु के 'श्' को षकार आदेश और उसको 'पढो: क: सि (८।२।४१) से ककार आदेश होकर आदेशप्रत्यययोः' (८।३।५९) से षत्व' हो जाता है। शेष कार्य पूर्ववत् है। (४६) नानोर्जः५८। प०वि०-न अव्ययपदम् अनो: ५।१ ज्ञ: ५।१। अनु०-‘सन्' इत्यनुवर्तते। अन्वय:-अनोज: सन: कतरि आत्मनेपदं न। अर्थ:-अनु-उपसर्गात् सन्नन्ताद् ज्ञा-धातो: कतरि आत्मनेपदं न भवति। उदा०-पुत्रमनुजिज्ञासति । आज्ञापयितुमिच्छतीत्यर्थः । आर्यभाषा-अर्थ-(अनो:) अनु उपसर्ग से परे (सन:) सन् प्रत्ययान्त (ज्ञ:) ज्ञा धातु से (कतीर) कर्तृवाच्य में (आत्मनेपदम्) आत्मनेपद (न) नहीं होता है। उदा०-पुत्रमनुजिज्ञासति । पुत्र को आज्ञा देना चाहता है। सिद्धि-अनुजिज्ञासति। यहां अनु उपसर्गपूर्वक सन्नन्त ज्ञा धातु से आत्मनेपद का प्रतिषेध होने से लट् के स्थान में तिप्-आदेश होता है। शेष कार्य जिज्ञासते के समान है। (४७) प्रत्याभ्यां श्रुवः ।५६/ प०वि०-प्रति-आङ्भ्याम् ५ ।२ श्रुव: ५।१। स०-प्रतिश्च आङ् च तो प्रत्याडौ, ताभ्याम्-प्रत्याभ्याम् (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)। अनु०-'न, सनः' इत्यनुवर्तते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003296
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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