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भूमिका
में पहुंचे । १८५५ ई० में योगियों की खोज में केदारनाथ और जोशीमठ के शंकराचार्य ने इन्हें हरद्वार में स्वामी पूर्णानन्द के पास जाकर विद्या- अध्ययन की सम्मति दी । दयानन्द इस पर्वतयात्रा से लौटकर १८५५ ई० में लगभग १०८ वर्षीय अतिवृद्ध संन्यासी स्वामी पूर्णानन्द के पास पहुंचे। वे अब अतिवृद्ध होने से मौनी बन गये थे, पढ़ाते नहीं थे। उन्होंने लिखकर दयानन्द को अपने शिष्य विरजानन्द के पास मथुरा जाने की प्रेरणा दी ।
विद्या-अध्ययन
स्वामी दयानन्द १८५७ के स्वतन्त्रता आन्दोलन में व्यस्त होगए और स्वामी पूर्णानन्द के आदेशानुसार मथुरा न जा सके। स्वतन्त्रता - आन्दोलन के पश्चात् दिनांक १४ नवम्बर १८६० ई० बुधवार को स्वामी दयानन्द ने मथुरा जाकर स्वामी विरजानन्द दण्डी की पाठशाला का दरवाजा खटखटाया और उनके शिष्य बन गए। दयानन्द ने दण्डी जी से अष्टाध्यायी, महाभाष्य, वेदान्तदर्शन और वेदार्थ की पद्धति आदि का अध्ययन किया। आर्ष ग्रन्थों की महिमा और अनार्ष ग्रन्थों की हीनता का रहस्य समझा । वेदार्थ की कुंजी भी मिल गई। सच्चा गुरु और सत्य का मार्ग उपलब्ध होगया । दयानन्द ने १८६३ ई० तक यहां गुरुवर की सेवा में रहकर वेदामृत का पान किया ।
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गुरुदक्षिणा
शिक्षा - समाप्ति पर दयानन्द गुरु-दक्षिणा में लौंग लेकर गुरुवर की सेवा में उपस्थित हुए। लौंग दण्डी जी का प्रिय पदार्थ था । विरजानन्द बोले- दयानन्द ! तुम्हारी यह भक्तिपूर्ण भेंट स्वीकार है, रख दो । इतने मात्र से गुरु-दक्षिणा पूर्ण न होगी । गुरुदक्षिणा में मुझे तुमसे और कुछ मांगना है, क्या तुम मेरी मांगी वस्तु मुझे दे सकोगे ? दयानन्द बोले- मेरा रोम-रोम आपके आदेशार्थ समर्पित है, आप आदेश करिये। विरजानन्द ने कहा- दयानन्द ! देश में घोर अज्ञान फैला हुआ है । स्वार्थी लोग जनता को पथभ्रष्ट कर रहे हैं । तुम इस अविद्या-अन्धकार के निवारण के लिए सर्वात्मना प्रयत्न करो । दयानन्द ने सहर्ष तथास्तु कहकर अपना सारा जीवन, वेद, अष्टाध्यायी, महाभाष्य आदि आर्ष ग्रन्थों के प्रचार-प्रसार में लगा दिया ।
अष्टाध्यायी की शिक्षा-पद्धति
स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश (समु० ३) में अष्टाध्यायी की पठन-पाठनविधि का इस प्रकार विधान किया है
१.
शिक्षा - प्रथम पाणिनिमुनि कृत शिक्षा जो कि सूत्र रूप है उसकी रीति अर्थात् - इस अक्षर का यह स्थान, यह प्रयत्न और करण है, जैसे 'प' इसका ओष्ठ स्थान स्पृष्ट प्रयत्न और प्राण तथा जीभ की क्रिया करनी करण कहाता है। इसी प्रकार यथायोग्य सब अक्षरों का उच्चारण माता, पिता और आचार्य सिखलावें ।
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