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प्रथमाध्यायस्य तृतीयः पादः
१६३ गणकान् उपकुरुते। शिष्य आचार्यमुपकुरुते। (४) साहसिक्यम् (साहसिक कर्म) परदारान् प्रकुरुते। (५) प्रतियत्न: (गुणान्तराधानम्) एधो दकस्योपस्कुरुते। (६) प्रकथनम् (प्रवचनम्) गाथा: प्रकुरुते । जनापवादान् प्रकुरुते। (७) उपयोग: (धर्मकार्ये विनियोगः) शतं प्रकुरुते। सहस्रं प्रकुरुते।
___ आर्यभाषा-अर्थ-(गन्धन०) गन्धन, अवक्षेपण, सेवन, साहसिक्य, प्रतियत्न, प्रकथन और उपयोग अर्थ में विद्यमान (कृञः) कृञ् धातु से (कीरे) कर्तृवाच्य में (आत्मनेपदम्) आत्मनेपद होता है।
(१) गन्धन । हिंसा। अपकार से युक्त हिंसात्मक सूचना। उत्कुरुते। उदाकुरुते। सूचित करता है।
(२) अवक्षेपण । भर्त्सन धमकाना। श्येनो वर्तिकामुदाकुरुते। बाज बटेर को धमकाता है।
(३) सेवन । सेवा करना। गणकान् उपकुरुते। गणक लोगों की सेवा करता है। गणक ज्योतिषी। महामात्रानुपकुरुते। महापुरुषों की सेवा करता है।
(४) साहसिक्य । साहसिक कार्य करना। परदारान् प्रकुरुते। परदाराओं के प्रति साहसपूर्वक प्रवृत्त होता है।
(५) प्रतियत्न । विद्यमान गुण को बदलना। एधो दकस्योपस्कुरुते । इन्धन जल के गुण को बदलता है। दक-उदक (जल)।
(६) प्रकथन । जोर से कहना। गाथा: प्रकुरुते। गाथाओं को जोर से कहता है। जनापवादान् प्रकुरुकुते। जन-अपवादों को जोर से कहता है।
(७) उपयोग। धर्मार्थ व्यय करना। शतं प्रकुरुते। सौ रुपये धर्मार्थ व्यय करता है। सहस्रं प्रकुरुते। हजार रुपये धर्मार्थ व्यय करता है।
सिद्धि-(१) उत्कुरुते। उत्+कृ+लट् । उत्+कृ+उ+त। उत्+कर+उ+त। उत्+कुर्+उ+ते। उत्कुरुते।
यहां उत्' उपसर्ग से परे 'डुकृञ् करणे' (त०उ०) धातु से पूर्ववत् 'लट्' प्रत्यय और उसके स्थान में आत्मनेपद 'त' आदेश होता है। तनादिकृभ्य उ:' (३।१।७९) से यहां उ-प्रत्यय होता है। कृ धातु को सार्वधातुकार्धधातुकयोः' (७।३ १८४) से गुण और 'अत उत् सार्वधातुके (६।४।११०) से 'अ' को उकार आदेश होता है।
विशेष-धातुपाठ में कृ' धातु करने अर्थ में पढ़ी गई है किन्तु अनेकार्था हि धातवो भवन्ति' इस महाभाष्य-वचन से धातुओं के अनेक अर्थ होते हैं। यहां कृ' धातु के गन्धन' आदि सात अर्थ बतलाये गये हैं।
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