________________
૧૧
प्रथमाध्यायस्य तृतीयः पादः उदा०-(गमि) सङ्गच्छते। (ऋच्छि) समृच्छते।
आर्यभाषा-अर्थ- (सम:) सम् उपसर्ग से परे (अकर्मकात्) अकर्मक (गमि-ऋच्छिभ्याम्) गमि और ऋच्छि धातु से (कीरे) कर्तृवाच्य में (आत्मनेपदम्) आत्मनेपद होता है।
उदा०-(गमि) सङ्गच्छते । मिलता है। (ऋच्छि) समृच्छते । कठोर होता है।
सिद्धि-(१) संगच्छते । सम्+गम्+लट् । सम्+गम्+शप्+त। सम्+गम्+अ+त। सम्+गच्छ+अ+ते। संगच्छते।
यहां 'सम्' उपसर्गपूर्वक 'गम्लु गतौ' (भ्वादि) धातु से पूर्ववत् लट्' प्रत्यय और उसके स्थान में आत्मनेपद त' आदेश होता है। इषुगमियमां छ:' (७।३।७७) से गम् के म्' को 'छ्' आदेश होता है। संगच्छते=मिलता है। ऋच्छ गतौ' (तु०प०) धातु से-समृच्छते। हृञ् स्पर्धायां शब्दे च (भ्वा० उ०)
(१६) निसमुपविभ्यो ह्रः।३०। प०वि०-नि-सम्-उप-विभ्य: ५ ।३ हृ: ५।१।
स०-निश्च सं च उपश्च विश्च ते-निसमुपवय:, तेभ्य:-निसमुपविभ्य: (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
अन्वय:-निसमुपविभ्यो हृ: कतरि आत्मनेपदम्।
अर्थ:-नि-सम्-उप-वि-उपसर्गपूर्वाद् ह्या-धातो: पर: कर्तरि आत्मनेपदं भवति।
उदा०-(नि) नियते। (सम्) संहयते। (उप) उपहयते। (वि) विह्वयते।
आर्यभाषा-अर्थ-(नि-सम्-उप-विभ्य:) नि, सम्, उप और वि उपसर्ग से परे (ह:) हा धातु से (करि) कर्तृवाच्य में (आत्मनेपदम्) आत्मनेपद होता है।
उदा०-(नि) निहयते। (सम्) संहयते। (उप) उपहयते। (वि) विहयते । युद्ध के लिये बुलाता है।
सिद्धि-(१) निहयते । नि+हे+लट् । नि+हे+शप्+त। नि+हे+अ+त। निहयते ।
यहां नि' उपसर्गपूर्वक हे स्पर्धायां शब्दे च' (भ्वा०उ०) धातु से पूर्ववत् लट्' प्रत्यय और उसके स्थान में आत्मनेपद 'त' आदेश होता है। पूर्ववत् शप् प्रत्यय और 'एचोऽयवायाव:' (६।१।७८) से धातु के 'ए' को अय् आदेश होता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org