________________
१५३
प्रथमाध्यायस्य तृतीयः पादः विश-प्रवेशने (तु०प०)
(४) नेर्विशः।७। प०वि०-ने: ५ १ विश: ५।१। अनु०-'कीर आत्मनेपदम्' इति सर्वत्रानुवर्तते। अन्वय:-नेर्विश: कर्तरि आत्मनेपदम्। अर्थ:-नि-उपसर्गपूर्वाद् विशो धातो: कर्तरि आत्मनेपदं भवति । उदा०-निविशते।
आर्यभाषा-अर्थ-नि:) उपसर्ग से परे (विश:) विश् धातु से (कतीरे) कर्तृवाच्य में (आत्मनेपदम्) आत्मनेपद होता है। निविशते। घुसता है।
सिद्धि-(१) निविशते । नि+विश्+लट् । नि+विश्+त। नि+विश्+श+त। नि+विश्+अ+ते। निविशते। ____ यहां नि' उपसर्ग से परे 'विश प्रवेशने (तु उ०) धातु से पूर्ववत् 'लट्' प्रत्यय और ल के स्थान में आत्मनेपद 'त' आदेश होता है।
विशेष-(१) इस प्रकरण में प्राय: उपसर्ग से परे धातु से आत्मनेपद का विधान किया गया है। उपसर्ग ये हैं-प्र। परा। अप। सम्। अनु। अव । निस् । दुस् । वि। आङ् । नि। अधि। अपि । अति । सु । उत् । अभि। प्रति। परि। उप।
अनुवृत्ति- कर्तरि आत्मनेपदम्' की अनुवृत्ति शेषात् कर्तरि परस्मैपदम्' तक है। अत: प्रत्येक सूत्र में इसकी अनुवृत्ति नहीं दिखाई जायेगी। डुक्रीञ् द्रव्यविनिमये (क्रया०उ०)
(७) परिव्यवेभ्यः क्रियः।१८। प०वि०-परि-वि-अवेभ्य: ५।३ क्रिय: ५।१।
स०-परिश्च विश्व अवश्च ते-परिव्यवाः, तेभ्य:-परिव्यवेभ्य: (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
अन्वय:-परिव्यवेभ्य: क्रिय: कतरि आत्मनेपदम्। अर्थ:-परि-वि-अव-उपसर्गपूर्वात् क्री-धातो: कर्तरि आत्मनेपदं भवति । उदा०-(परि) परिक्रीणीते। (वि) विक्रीणीते। (अव) अवक्रीणीते।
आर्यभाषा-अर्थ-(परि-वि-अवेभ्यः) परि, वि, अव उपसर्ग से परे (क्रिय:) की धातु से (कतार) कर्तृवाच्य में (आत्मनेपदम्) आत्मनेपद होता है।
उदा०-(परि) परिक्रीणीते। किसी को पैसे से खरीदता है। (वि) विक्रीणते। बेचता है। (अव) अवक्रीणीते। किराये पर लेता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org