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प्रथमाध्यायस्य तृतीयः पादः
१४७ तूदीशलातुरवर्मतीकूचवाराड् ढक्छण्डश्यकः' (४।३।९४) अर्थात् तूदी, शलातुर, वर्मती, कूचवार शब्दों से ढक्, छण, ढञ् और यक् प्रत्यय होते हैं। इस सूत्र से प्रथम शब्द से प्रथम प्रत्यय, द्वितीय शब्द से द्वितीय प्रत्यय, तृतीय शब्द से तृतीय प्रत्यय और चतुर्थ शब्द से चतुर्थ प्रत्यय संख्या के अनुसार किया जाता है, अन्यथा किसी शब्द से कोई भी प्रत्यय होना सम्भव है। अधिकारलक्षणम्
स्वरितेनाधिकारः।१०। प०वि०-स्वरितेन ३१ अधिकार: १।१। अर्थ:-अस्मिन् शास्त्रे स्वरितेन चिह्मेनाधिकारो वेदितव्यः ।
उदा०-प्रत्यय: (३।१।१) ड्याप्रातिपदिकात् (४।११) अगस्य (६।४।१) भस्य (६।४।१२९) पदस्य (८।४।१२९) इत्यादि ।
आर्यभाषा-अर्थ-इस शब्दशास्त्र में स्वरित नामक स्वर चिह्न से (अधिकार:) उस शब्द का अधिकार समझना चाहिये। जैसे-प्रत्ययः (३।१।१)। धातोः (अ० ३।१।९१)। डन्यापप्रातिपदिकात (अ० ४।१।१)। अङ्गस्य (अ० ६।४।१)। भस्य (अ० ६।४।१२९) पदस्य (अ० ८।४।१२९) इत्यादि।
विशेष-आजकल अष्टाध्यायी में अधिकारवाले शब्दों पर स्वरित स्वर का चिह्न दिखाई नहीं देता है। प्रतिज्ञास्वरिता: पाणिनीयाः' इस गुरुवचन से पाणिनिमनि के शिष्य प्रतिज्ञामात्र से ही अधिकारवाले शब्दों को स्वरित मानते हैं कि यह शब्द स्वरित है, अत: अब इसका यहां अधिकार है। इस शब्द की आगामी सूत्रों में अनुवृत्ति ली जाती है।
आत्मनेपदप्रकरणम् अनुदात्तेद् ङिच्च धातुः
(१) अनुदात्तडित आत्मनेपदम्।१२। प०वि०-अनुदात्त-डित: ५।१ आत्मनेपदम् १।१।
स०-अनुदात्तश्च ङश्च तौ-अनुदात्तङौ, इच्च इच्च तौ-इतौ। अनुदात्तौ इतौ यस्य स:-अनुदात्तडित्, तस्मात्-अनुदात्तडित: (इतरेतरयोगद्वन्द्वगर्भितबहुव्रीहिः)।
अर्थ:-अनुदात्तेतो डितश्च धातोरात्मनेपदं भवति ।
उदा०-(अनुदात्तेत्) आस् उपवेशने-आस्ते। वस् आच्छादने-वस्ते। (डित) षूङ् प्राणिगर्भविमोचने-सूते । शीङ् स्वप्ने-शेते।
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