________________
१००
पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सिद्धि-(१) तृषित्वा । तृष्+क्त्वा। तृष+इट्+त्वा। तृषित्वा+सु। तृषित्वा।
यहां तष पिपासायाम्' (दिवा०प०) धातु से पूर्ववत् क्त्वा' प्रत्यय और 'इट्' का आगम होने पर, क्त्वा' प्रत्यय को कित् मानकर 'पुगन्तलघूपधस्य च' (७।३।८६) से प्राप्त लघूपध गुण का 'क्डिति च (११।५) से निषेध हो जाता है। दूसरे पक्ष में क्त्वा' प्रत्यय के कित् न मानने से तृष धातु को लघूपध गुण हो जाता है-तर्षित्वा।।
इसी प्रकार 'मृष तितिक्षायाम्' (दि०प०) धातु से मृषित्वा और मर्षित्वा शब्द सिद्ध करें। कृश तनूकरणे' (दि०प०) धातु से कृशित्वा और कर्शित्वा शब्द सिद्ध करें। मृषित्वा। द्वन्द्वों का सहन करके। सुख-दु:ख आदि के जोड़े को द्वन्द्व कहते हैं।
विशेष-पाणिनि मुनि किसी आचार्य का नाम ग्रहण विकल्प के लिये करते हैं, किन्तु यहां काश्यप आचार्य का नामग्रहण पूजा के लिये है कि इस विषय में काश्यप आचार्य का भी यही मत है, क्योंकि यहां विकल्प के लिये तो 'वा' की अनुवृत्ति है ही। क्त्वासन्कित्त्वविकल्प:
(२२) रलो व्युपधाद्धलादेः सँश्च ।२६ । प०वि०-रल: ५।१ उ-इ-उपधात् ५।१ हलादे: ५।१ सन् ११ च अव्ययपदम्।
स०-उश्च इश्च तौ-वी, वी उपधायां यस्य सः-व्युपधः, तस्मात्-व्युपधात् (इतरेतरयोगद्वन्द्वगर्भितबहुव्रीहि:)। हल् आदिर्यस्य स:-हलादिः, तस्मात्-हलादे: (बहुव्रीहि:)।
अनु०-सेट् क्त्वा वा कित् न' इत्यनुवर्तते। अन्वय:-रलो व्युपधाद् हलादे: सेट् क्त्वा सँश्च वा किद् न ।
अर्थ:-रलन्ताद् उकारोपधाद् इकारोपधाच्च हलादेर्धातो: पर: सेट क्त्वा सँश्च प्रत्ययो विकल्पेन किद्वद् न भवति ।
उदा०-उकारोपधात् (द्युत्) क्त्वा-द्युतित्वा। द्योतित्वा। सन्-दिद्युतिषति । दिद्योतिषति । इकारोपधात् (लिख) क्त्वा-लिखित्वा । लेखित्वा। सन्-लिलिखिषति । लिलेखिषति।
आर्यभाषा-अर्थ-(रल्) रल् अन्तवाली (उ-इ-उपधात्) उकार और इकार उपधावाली (हलादे:) हल् आदिवाली धातु से (सेट) इट् आगमवाला (क्त्वा) क्त्वा प्रत्यय (च) और (सन्) सन्प्रत्यय (वा) विकल्प से (कित्) किद्वत् (न) नहीं होता है।
उदा०-उकार-उपधावाली धातु (द्युत्) क्त्वा-द्युतित्वा, द्योतित्वा । चमक कर। सन्-दिद्युतिषते, दिद्योतिषते। चमकना चाहता है। इकार-उपधावाली धातु (लिख्)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org