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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् से अङ्ग को गुण प्राप्त होता है, किन्तु इस सूत्र से सिच्' प्रत्यय के 'डित्' हो जाने से 'क्डिति च' (१।१५) से गुण का निषेध हो जाता है।
(२) कुटिता । कुट्+तृच् । कुट्+इट्+तृ। कुट्+इ+तृ। कुटितृ+सु । कुटित् अनङ्+स्। कुटितन्+स् । कुटितान्+स् । कुटितान्+० । कुटिता।
यहां कुट कौटिल्ये (तु०प०) धातु से 'एक्ल्त चौ' (३।१।१३३) से तृच्' प्रत्यय, 'आर्धधातुकस्येड्वलादेः' (७।२।३५) से उसे 'इट्’ का आगम होने पर पुगन्तलघूपधस्य च' (७।२।८६) से अङ्ग को लघूपध गुण प्राप्त होता है। इस सूत्र से तृच्' प्रत्यय के डित्' हो जाने से विडति च' (१।१।५) से गुण का निषेध हो जाता है। इसी प्रकार से कुट्+तुमुन् । कुटितुम् । कुट+तव्यत् । कुटितव्यम् । उत् उपसर्गपूर्वक पुट धातु से उत्पुटिता आदि शब्द सिद्ध होते हैं।
(३) कुटादिः । कुट कौटिल्ये। पुट संश्लेषणे। कुच सकोचने। गुज शब्दे। गुड रक्षायाम्। डिप क्षेपे। छुर छेदने । स्फुट विकसने। मुट आक्षेप-प्रमर्दनयोः । त्रुट छेदने। तुट कलहकर्माण। चुट, छुट छेदने। जुड बन्धने। कड मदे। लुट संश्लेषणे। लुठ इत्येके। कृड घनत्वे। कुड बाल्ये। पुड उत्सर्गे। घुट प्रतिघाते। तुड तोडने। थुड, स्थुड संवरणे। खुड, छुड इत्येके। स्फुर स्फुरणे। स्फर इत्येके। स्फुल सञ्चलने। फुल इत्येके। स्फुड, चुड, ब्रड संवरणे। क्रुड, भृड निमज्जने। गुरी उद्यमने। णू स्तवने। धू विधूनने। गु पुरीषोत्सर्गे। ध्रु गतिस्थैर्ययोः । ध्रुव इत्येके । कूङ् शब्दे। कुङ् शब्द इत्येके। (इति कुटादिगण:)।
विशेष-यहां गाङ्' से विभाषा लुलुङोः' (अ० २।४।५०) से 'इङ्' के स्थान में विहित 'गाड्' आदेश का ग्रहण किया जाता है, 'गाङ् गतौ (भ्वा०आ०) धातु का नहीं, क्योंकि गाड्' आदेश को 'डित्' करने का अन्य कोई प्रयोजन नहीं है। इडादिप्रत्ययः
(२) विज इट।२। प०वि०-विज: ५।१ इट् १।१ । अनु०-'डित्' इत्यनुवर्तते। अन्वय:-विज इट् ङित्। अर्थ:-विजो धातो: पर इडादिप्रत्ययो डिद्वद् भवति । उदा०-(विज) उद्विजिता। उद्विजितुम् । उद्विजितव्यम् ।
आर्यभाषा-अर्थ-(विज:) विज धातु से परे (इट्) इडादि प्रत्यय (ङित्) डिद्वत् होता है।
उदा०-उद्विजिता। डरनेवाला। उद्विजितुम् । डरने के लिये। उद्विजितव्यम् । डरना चाहिये।
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