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प्रथमाध्यायस्य प्रथमः पादः
शब्दग्रहणप्रकरणम् स्वरूपग्रहणम्
(१) स्वं रूपं शब्दस्याशब्दसंज्ञा।६७। प०वि०-स्वम् १।१ रूपम् ११ शब्दस्य ६१ अशब्दसंज्ञा १।१।
स०-शब्दस्य संज्ञा इति शब्दसंज्ञा, न शब्दसंज्ञा इति अशब्दसंज्ञा (षष्ठीतत्पुरुषगर्भितनञ्तत्पुरुष:)।
अर्थ:-अस्मिन् व्याकरणशास्त्रे शब्दस्य स्वकीयं रूपं ग्राह्यं भवति, व्याकरणसंज्ञां वर्जयित्वा।
उदा०-अग्नेर्डक् । आग्नेयम्। दनष्ठक्-दाधिकम्।
आर्यभाषा-अर्थ-इस व्याकरणशास्त्र में (शब्दस्य) शब्द का (स्वम्) अपना (रूपम्) रूप ग्रहण किया जाता है, उसका अर्थ नहीं (अशब्दसंज्ञा) शब्दशास्त्र की संज्ञा को छोड़कर। शब्दशास्त्र की जो वृद्धि आदि संज्ञायें हैं, वहां वृद्धि आदि शब्दों का ग्रहण नहीं किया जाता अपितु जसकी ये वृद्धि आदि संज्ञायें की हैं, उनका ही ग्रहण किया जाता है। 'आनेर्डक्' (४।२।३३) आग्नेयम् अष्टाकपालं निवपत् । यहां अग्नि शब्द से ढक् प्रत्यय का विधान किया गया है। अत: अग्नि शब्द का ही यहां ग्रहण किया जाता है, उसके अर्थ अङ्गार का नहीं और न ही उसके पर्यायवाची ज्वलन, पावक और धूमकेतु आदि का ग्रहण होता है। आग्नेयम्। अग्नि देवतावाली हवि। दाधिकम् । दही में संस्कृत लवण आदि।
सिद्धि-(अग्नेयम् । अग्नि+ढक् । अग्नि एय। अग्न्+एय् । आग्न् एय। आग्नेय+सु। आग्नेयम् । यहां 'उगनेर्डक्' (४।२।३३) से ढक् प्रत्यय, आयनेय०' (७।१।२) से ढ' के स्थान में एय्' आदेश, यस्येति च (६।४।१४८) से इकार का लोप और किति च (७१२।११८) से आदिवद्धि होती है। ऐसे ही दाधिकम्।।
(२) यहां अग्नि शब्द से ढक्' प्रत्यय कहा गया है वह उसके अर्थ अंगार से तथा उसके पर्यायवाची चलन आदि से नहीं होता है। सवर्णग्रहणम्
(२) अणुदित् सवर्णस्य चाप्रत्ययः ।६८ | प०वि०अण्-उदित् १।१ सवर्णस्य ६।१ च अव्ययम्, अप्रत्यय: १।१।
स०-अ च उदित् च एतयो: समाहार: अणुदित् (समाहारद्वन्द्व:) न प्रत्यय इतिअप्रत्यय: (नञ्तत्पुरुषः)।
अनु०-वं रूपम्, इत्यनुवर्तते।
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