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सप्तम्या- अर्थनिर्देशः
(१) तस्मिन्निति निर्दिष्टे पूर्वस्य । ६५ । प०वि०-तस्मिन् ७।१ इति अव्ययपदम्, निर्दिष्टे ७ । १ पूर्वस्य
६ । १ ।
पाणिनीय-अष्टाध्यायी प्रवचनम्
अर्थः- तस्मिन्निति सप्तम्या निर्दिष्टे व्यवधानरहितस्य पूर्वस्य कार्यं
भवति ।
उदा० - इको यणचि - दध्यत्र । मध्वत्र ।
आर्यभाषा - अर्थ - ( तस्मिन् इति) सप्तमी विभक्ति के द्वारा (निर्दिष्टे ) किसी का निर्देश करने पर वहां (पूर्वस्य) पूर्व को कार्य होता है, उत्तर को नहीं । जैसे- 'इको यणचि ( ६ । १।७७) यहां 'अचि' का सप्तमी विभक्ति से निर्देश किया गया है। अतः यहां अच् के परे होने पर पूर्ववर्ण को कार्य किया जाता है । दधि+अत्र । दध्यत्र । मधु+अत्र । मध्वत्र । इत्यादि ।
विशेष- इस व्याकरणशास्त्र में 'स्वं रूपं शब्दस्याशब्दसंज्ञा' (१/१/६८) से शब्द का अपना रूप ही ग्रहण किया जाता है। यहां तस्मिन्' शब्द का जो सप्तमी अर्थ है, वह ग्रहण किया जाता है, तस्मिन् शब्द नहीं ।
पञ्चम्या अर्थनिर्देशः
(१) तस्मादित्युत्तरस्य । ६६ ।
प०वि०-तस्मात् ५।१ इति अव्ययपदम् उत्तरस्य ६ ।१ ।
अर्थ :- तस्मादिति पञ्चम्यानिर्दिष्टे व्यवधानरहितस्योत्तरस्य कार्यं भवति ।
उदा० - तिङ्ङतिङ :- ओदनं पचति ।
आर्यभाषा - अर्थ - (तस्मात् इति) पञ्चमी विभक्ति के द्वारा (निर्दिष्टे ) किसी अर्थ का निर्देश करने पर वहां (उत्तरस्य ) उत्तर को कार्य होता है, पूर्व को नहीं । जैसे 'तिङ्ङतिङ' (८।१।२८) तिङ् १ । १ अतिङः ५ ।१ अतिङन्त से उत्तर तिङन्त पद को अनुदात्त होता है। जैसे-ओदनं पचति । वह चावल पकाता है।
विशेष- यहां भी पूर्ववत् तस्मात्' शब्द के साथ 'इति' शब्द का प्रयोग करने से 'तस्मात्' शब्द का जो पञ्चमी अर्थ है, वह ग्रहण किया जाता है, 'तस्मात्' शब्द नहीं ।
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