________________
पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
(२) उपधा लोप | ( जघ्नतुः) हन्+ लिट् । हन्+तस्। हन्+अतुस्। न्+अतुस् । हन्+हन्+अतुस् । ह+हन्+अतुस् । झ+हन्+अतुस् । ज+हन्+अतुस् । जघ्नतुः । यहां 'हन् हिंसागत्योः' (अदा०प०) धातु से पूर्ववत् लिट् प्रत्यय, 'गमहनजनखनघसां०' (६ । ४ ।९८) से किया गया उपधा का लोप परनिमित्त अच्- आदेश है, वह केवल पूवर्वत् हन् धातु को द्विर्वचन करने में स्थानिवत् हो जाता है, जिससे धातु के प्रथम एकाच् अवयव को द्विर्वचन हो सके। इसी प्रकार से - जघ्नुः ।
६४
(३) णिलोप | ( आटिटत्) अट्+ णिच् । आट्+इ। आटि+लुङ् । आट्+आटि+ चिल+तिप्। आ+आटि+ चङ्+ति । आ+आटि+अ+त् । आ+आट्+अ+त् । आ+आटि+ टि+अ+त् । आ आटि ट्+अ+त् । आटिटत् । यहां 'अट् गतौं' (स्वा०प०) धातु से हेतुमति च' (३ । १ । २६ ) से 'णिच्' प्रत्यय, 'अत उपधाया: ' ७ । २ । ११६ ) से धातु की उपधा को वृद्धि, णिजन्त 'आटि' धातु से 'लुङ्' (३ 1१1११० ) से 'लुङ्' प्रत्यय, 'च्लि लुङि' (३ | १/४३) से 'च्लि' के स्थान में 'चङ्' आदेश 'णेरनिटिं' (६/४/५१) से 'णि' का लोप हो जाने पर 'चङि' (६ । १ । ११ ) से अजादि धातु के द्वितीय एकाच् अवयव को द्विर्वचन प्राप्त नहीं होता है, णि लोप के स्थानिवत् हो जाने से आटि धातु के द्वितीय एकाच् अवयव 'टिं' को 'टि- टि' द्विर्वचन हो जाता है ।
(४) यण् आदेश । (चक्रतुः ) कृ+लिट् । कृ+तस् । कृ+अतुस् । क्रूर्+अतुस् । कृ+कृ+अतुस् । कृ+कर्+अतुस् । क् अ+क्रू+अतुस् । च+क्र्+अतुस् । चक्रतुः | यहां पूर्ववत् लिट्' प्रत्यय करने पर 'इको यणचिं' (६ । १/७७) से 'कृ' धातु के 'ऋ' को यण् 'ए' आदेश करने पर लिटि धातोरनभ्यासस्य' (६ । १।८) से अच् के अभाव में प्रथम एकाच अवयव को द्विर्वचन प्राप्त नहीं होता है। यहां यण्- आदेश को स्थानिवत् मानकर 'कृ' धातु के प्रथम एकाच अवयव को द्वित्व हो जाता है।
(५) अय् आदेश | (निनय) नी+लिट् । नी+मिप् । नी+णल्। नी+अ । ने+अ । न् अय्+अ। ने+ने+अ। नि+नय्+अ । निनय । 'यहां 'णीञ् प्रापणे' (भ्वा० उ० ) धातु से पूर्ववत् 'लिट्' प्रत्यय 'तिप्तस्झि०' (३।४।७८) से 'लू' के स्थान में 'मिप्' आदेश, 'परस्मैपदानां णलतुस्०' ( ३।४।८२) से मिप् के स्थान में 'णल्' आदेश 'णलुत्तमो वा' ( ७ 1१1९१ ) से उत्तम पुरुष के गल् का विकल्प से णित्व' 'सार्वधातुकार्धधातुकयोः ' (७/३/८४) से अंग को गुण, 'एचोऽयवायाव:' ( ६ । १।७८) से अय् आदेश । उसे स्थानिवत् मानकर 'लिटि धातोरनभ्यासस्य' (६।१।८) से ने' को द्विर्वचन होता है। (६) आय् आदेश । (निनाय) नी+लिट् । नी+मिप् । नी+णल्। नी+अ। नै+अ । न् आय्+य। नै+नै+अ । नि+नाय् +अ । निनाय । यहां पूर्ववत् लिट् प्रत्यय, 'णलुत्तमो वा' (७ 1१1९१) से गल के णित्त्व पक्ष में 'अचो गति (७/१/११५ ) से अंग को वृद्धि, 'एचोऽयवायाव:' ( ६ । १।७८) से आय् आदेश । उसे स्थानिवत् मानकर पूर्ववत् 'नै' को द्विर्वचन होता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org