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प्रथमाध्यायस्य प्रथमः पादः
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स्थानिवत् हो जाये तो 'खरि च' (८/४/५५) से पूर्वविधि 'घ' को चर् 'क्' नहीं हो सकता। अकार लोप के स्थानिवत् न होने से 'घ' को चर् 'क' हो जाता है ।
इस प्रकार परनिमित्तक अच्- आदेश पदान्त आदि विधि करने में उस अच् आदेश से पूर्ववर्ण सम्बन्धी कोई विधि करने में स्थानिवत् नहीं होता है, जिससे कि अच् आदेश से पूर्ववर्ण को वह प्राप्त विधि की जा सके। द्विर्वचनविधिः
(४) द्विर्वचनेऽचि । ५६ ।
प०वि० - द्विर्वचने ७ ।१ अचि ७ । १
अनु०-(निमित्तसप्तमी)। 'अच: स्थानिवत् आदेश:' इत्यनुवर्तते । अव्ययः-द्विर्वचनेऽचि अच आदेश: स्थानिवत् ।
अर्थ:-द्विर्वचननिमित्तेऽचि परतोऽच आदेश: स्थानिवत् भवति, द्विर्वचन एव कर्तव्ये । अत्र आल्लोप - उपधालोप- णिलोप- यण्- अय् अव्-आय्आवादेशाः प्रयोजयन्ति ।
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उदा०-(१) आल्लोपः । पपतुः । पपुः । (२) उपधालोपः । जघ्नतुः जघ्नुः । (३) णिलोप: । आटिटत् ( ४ ) यण् । चक्रतुः । चक्रुः । ( ५ ) अय् । निनय । (६) अव् । लुलव। (७) आय् । निनाय । (८) आव् । लुलाव । आर्यभाषा-अर्थ- (द्विर्वचने) द्विर्वचन के निमित्त (अचि) अच् के परे होने पर (परस्मिन्) पर के कारण से किया गया (अच: ) अच् के स्थान में (आदेश:) कोई आदेश (द्विर्वचने) केवल द्विर्वचन करने के लिये ही (स्थानिवत्) स्थानिवत् होता है। इसके (१) आल्लोप, (२) उपधालोप, (३) णिलोप, (४) यण, (५) अय्. (६) अव् (७) आय् और (८) आव् आदेश प्रयोजन हैं।
उदा०-आल्लोप। पपतुः। उन दोनों ने पीया । पपुः । उन सबने पीया । उपधा । जघ्नतुः । उन दोनों ने मारा । जघ्नुः । उन सबने मारा । णिलोप । आटिटत् । उसने घुमाया। यण्। चक्रतुः । चक्रुः । उन सबने किया। अय् । निनय | मैंने लिया । अव् । लुलव । मैंने काटा। आय् । निनाय । वह ले गया। आव् । लुलाव । उसने काटा ।
सिद्धि - (१) आल्लोप । (पपतुः) पा+लिट् । पा+तस् । पा+अतुस् । प्+अतुस् । पा+पा+अतुस् । प+प्+अतुस् । पपतुः । यहां 'परोक्षे लिट्' (३ 1१1११५) से लिट्' प्रत्यय, 'तिप्तस्झि०' (३।४।७८) से 'लू' के स्थान में 'तस्' आदेश, 'आतो लोप इटि च (६/४/६४) से पा धातु के आकार का लोप परनिमित्तक अच्- आदेश है, वह केवल 'लिटि धातोरनभ्यासस्य' (६ 1१1८) से 'पा' धातु को द्विर्वचन करने में स्थानिवत् हो जाता है, जिससे धातु के प्रथम एकाच् अवयव को द्विर्वचन हो सके। इसी प्रकार से - पपुः ।
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