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________________ ३४२ कुन्दकुन्दनिरचितः [अ० ३, गा० ७५___ इत्यभिहितमात्मद्रव्यमिदानीमेतदवाप्तिकारोऽभिधीयते-अस्य तावदात्मनो नित्यमेवानादिपौद्गलिककर्मनिमित्तमोहभावनानुभावपूणितात्मवृत्तितया तोयाकरस्येवात्मन्येव क्षुभ्यतः क्रमप्रवृत्ताभिरनन्ताभिज्ञप्तिव्यक्तिभिः परिवर्तमानस्य ज्ञप्तिव्यक्तिनिमित्ततया ज्ञेयभूतासु बहिरर्थव्यक्तिषु प्रवृत्तमैत्रीकस्य शिथिलतात्मविवेकतयात्यन्तबहिर्मुखस्य पुनः पौगलिककर्मनिर्मापकरागद्वेषद्वैतमनुवर्तमानस्य दूरत एवात्मावाप्तिः। अथ यदा खयमेव प्रचण्डकर्मकाण्डोच्चण्डीकृताखण्डज्ञानकाण्डखेनानादिपौगलिककर्मनिर्मितस्य [ मोहस्य] बध्यघातकविभागज्ञानपूर्वकविभागकरणात् केवलात्मभावानुभावनिश्चलीकृतवृत्तितया तोयाकर इवात्मन्येवातिनिःप्रकम्पस्तिष्ठन् युगपदेव व्याप्यानन्ता ज्ञप्तिव्यक्तीरवकाशाभावान्न जातु विवर्तते, तदास्य ज्ञप्तिव्यक्तिनिमित्ततया ज्ञेयभूतासु बहिरर्थव्यक्तिषु न नाम मैत्री प्रवर्तते । ततः सुप्रतिष्ठितात्मविवेकतयात्यन्तमन्तर्मुखीभूतः पौगलिककर्मनिर्मापकरागद्वेषद्वैतानुवृत्तिदरीभूतो दूरत एवाननुभूतपूर्वमपूर्वज्ञानानन्दस्वभावं भगवन्तमात्मानमवाप्नोति । अवाप्नोखेव ज्ञानानन्दात्मानं जगदपि परमात्मानमिति ।। भवति चात्र श्लोकःर्तनादिपरंपरादुर्लभान्यपि कथंचित्काकतालीयन्यायेनावाप्य सकलविमलकेवलज्ञानदर्शनस्वभावनिजपरमात्मतत्त्वसम्यश्रद्धानज्ञानानुचरणरूपाभेदरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पसमाधिसंजातरागधुपाधिरहितपरमानन्दैकलक्षणसुखामृतरसास्वादानुभवलाभे सत्यमावास्यादिवसे जलकल्लोलक्षोभरहितसमुद्र इव रागद्वेषमोहकल्लोलक्षोभकरके केवल आत्मस्वरूपकी भावनासे निश्चल (थिर) होवे, तो अपने स्वरूपमें निस्तरंग समुद्रकी तरह निष्कंप हुआ तिष्ठता है । एक ही बार व्याप्त हुए जो अनन्तज्ञानको शक्तिके भेद उनकर यह पलटता नहीं है। अपनी ज्ञान शक्तियोंकर बाह्य पररूप ज्ञेय पदार्थोंमें मैत्रीभाव नहीं करता है । निश्चल आत्मज्ञानकी विवेकतासे अत्यन्त स्वरूपके सन्मुख हुआ है । पुद्गलकर्मबंधके कारण राग द्वेषकी द्विविधासे दूर रहता है। ऐसा जो परमात्माका आराधक पुरुष है, वही पूर्वमें नहीं अनुभव किये हुए और ज्ञानानन्द स्वभाव ऐसे परब्रह्मको पाता है । आप ही साधक है, आप ही साध्य है, अवस्थाके भेदसे साध्य-साधक भेद हैं। यह सम्पूर्ण जगत् भी ज्ञानानन्दस्वरूप परमात्मभावको प्राप्त होवे, और आनंदरूप अमृत-जलके प्रवाहकर पूर्ण बहती हुई इस केवलज्ञानरूपी नदीमें जो आत्मतत्त्व मग्न होरहा है, जो समस्त ही लोकालोकके देखनेको समर्थ है, ज्ञानकर प्रधान हैं, जो तत्त्व अमूल्य उत्तम महारत्नकी तरह अतिशोभायमान है उस आत्मतत्त्वको स्याद्वादरूपी जिनेश्वरके मतको स्वीकार करके हे जगत्के भव्यजीवो ! तुम अंगीकार करो, जिससे कि परमानंदसुखको प्राप्त होवो । इस प्रकार कुंदकुंदाचार्यकृत प्रवचनसारमें यह चरणानुयोग पूर्ण हुआ । यह अनादिनिधन शब्दब्रह्म अपने अर्थरसकर गर्भित है, किसी पुरुषसे इसका अर्थ किया हुआ नहीं हो सकता, आप ही अर्थशक्तिकर प्रवर्तता है । इसलिये ऐसा कोई नहीं समझलेना कि प्रवचनसारका अर्थ मैंने किया है, वह तो स्वतःसिद्ध ही है।हे भव्यो! निर्मल ज्ञान-कलाके प्रकाशसे अनेकान्त-विद्याको निश्चयसे धारण करके एक परमात्मतत्त्वको पाकर परमआनंदरूप होवो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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