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________________ प्रवचनसारः जावदिया वयणवहा तावदिया चेव होति णयवादा। जावदिया णयवादा तावदिया चेव होति परसमया ॥ परसमयाणं वयणं मिच्छं खलु होदि सव्वहा वयणा । जइणाणं पुण वयणं सम्म खु कहंचि वयणादो ॥ __ एवमनया दिशा. प्रत्येकमनन्तधर्मव्यापकानन्तनयैर्निरूप्यमाणमुदन्वद्वदन्तरालमिलद्धवलनीलगाङ्गयामुनोदकभारवदनन्तधर्माणां परस्परमतद्भावमात्रेण शक्यविवेचनबादमेचकस्वभावैकधर्मव्यापकैकधर्मिखाद्यथोदितैकान्तात्मात्मद्रव्यम् । युगपदनन्तधर्मव्यापकानन्तनयव्याप्येकश्रुतज्ञानलक्षणप्रमाणेन निरूप्यमाणं तु समस्ततरङ्गिणीपयःपूरसमवायात्मकैकमकराकरवदनन्तधमणिं वस्तुवेनाशक्यविवेचनखान्मेचकस्वभावानन्तधर्मव्याप्येकर्मिसात् यथोदितानेकान्तात्मात्मद्रव्यं स्यात्कारश्रीवासवश्यैयौघैः पश्यन्तीत्थं चेत् प्रमाणेन चापि । पश्यन्त्येव प्रस्फुटानन्तधर्म स्वात्मद्रव्यं शुद्धचिन्मात्रमन्तः॥ प्राप्नोति इति । स एव वीतरागसर्वज्ञप्रणीतोपदेशवत् एकेन्द्रियविकलेन्द्रियपञ्चेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तमनुष्यदेशकुलरूपेन्द्रियपटुत्वनिाध्यायुष्यवरबुद्धिसद्धर्मश्रवणग्रहणधारणश्रद्धानसंयमविषयसुखनिवर्तनक्रोधादिकषायव्यावभेदसे एक एक स्वभावको धारता है, उसी प्रकार यह आत्मा नयोंकी अपेक्षा एक एक स्वरूपको धारण करता है । और जैसे वही समुद्र अनेक नदियोंके जलोंसे एक ही है, भेद नहीं, अनेकान्तरूप एक वस्तु है, उसी प्रकार यह आत्मा प्रमाणकी विवक्षासे अनंत स्वभावमय एक द्रव्य है । इस प्रकार एक अनेक स्वरूप नय प्रमागसे सिद्धि होती है, नयोंसे एकस्वरूप दिखलाया जाता है, प्रमागसे अनेक स्वरूप दिखलाये जाते हैं । इस प्रकार स्यात्पदकी शोभासे गर्भितनयोंके स्वरूपसे और अनेकान्तरूप प्रमाणसे अनंत धर्म संयुक्त शुद्धचिन्मात्र वस्तुका जो पुरुष निश्चय श्रद्धान करते हैं, वे साक्षात् आत्मस्वरूपके अनुभवी होते हैं । इस प्रकार इस आत्मद्रव्यका स्वरूप कहा । आगे उस आत्माकी प्राप्तिका उपाय दिखलाते हैं यह आत्मा अनादिकालसे लेकर पुद्गलीककर्मके निमित्तसे मोहरूपी मदिरा (शराव )के पीनेसे मदोन्मत्त हुआ घूमता है, और समुद्रकी तरह अपनेमें विकल्प-तरंगोंसे महाक्षोभित है। क्रमसे प्रवृत्त हुए अनन्त इन्द्रिय-ज्ञानके भेदोंसे सदाकाल पलटता रहता है, एकरूप नहीं, अज्ञानभावकर परस्वरूप बाह्यपदार्थोंमें आत्मबुद्धिसे मैत्रीभाव करता है, आत्मविवेककी शिथिलतासे सर्वथा बहिर्मुख हुआ है, बारम्बार पुद्गलीककर्मके उपजानेवाले राग द्वेष भावोंकी द्वैततामें प्रवर्त रहा है। ऐसे आत्माको शुद्ध चिदानन्द परमात्माकी प्राप्ति कहाँसे हो सकती है ? यदि यही आत्मा अखंड ज्ञानके अभ्याससे अनादि पुद्गलीककर्मसे उत्पन्न हुआ जो मिथ्यामोह उसको अपना घातक जानकर भेदाभिज्ञान द्वारा अपनेसे जुदा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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