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________________ ३४० कुन्दकुन्दविरचितः [अ० ३, गा० ७५भोक्तव्याधितवत्सुखदुःखादिभोक्त ४० । अभोक्तृनमेन हिताहितान्नभोक्तव्याधिताध्यक्षधन्वन्तरिचरवत् केवलमेव साक्षि ४१ । क्रियानयेन स्थाणुभिन्नमूर्धजातदृष्टिलब्धनिधानान्धवदनुष्ठानप्राधान्यसाध्यसिद्धिः ४२। ज्ञाननयेन चणकमुष्टिक्रीतचिन्तामणिगृहकोणवाणिजवद्विवेकप्राधान्यसाध्यसिद्धिः ४३। व्यवहारनयेन बन्धकमोचकपरमाण्वन्तरसंयुज्यमानपरमाणुवद्धन्धमोक्षयोद्वैतानुवर्ति ४४ । निश्चयनयेन केवलबध्यमानमुच्यमानबन्धमोक्षोचितस्निग्धरूक्षतगुणपरिणतपरमाणुवद्वन्धमोक्षयोरेद्वैतानुवर्ति ४५। अशुद्धनयेन घटशरावविशिष्टमृण्मात्रवत्सोपाधिस्वभावम् ४६ । शुद्धनयेन केवलमृण्मात्रवनिरुपाधिस्वभावम् ४७ । तदुक्तम्जातरागाद्युपाधिरहितपरमान्दैकलक्षणसुखामृतरसास्वादानुभवमलभमानः सन् पूर्णमासीदिवसे जलकल्लोलक्षुभितसमुद्र इव रागद्वेषमोहकल्लोलैर्यावदस्वस्थरूपेण क्षोभं गच्छत्ययं जीवस्तावत्कालं निजशुद्धात्मानं न है। जैसे हित, अहित पथ्यको लेता हुआ रोगी सुख दुःखको भोगता है । अभोक्तानयकर भोक्ता नहीं है, केवल साक्षीभूत है, जैसे हित, अहित पथ्यको भोगनेवाले रोगीका तमाशा देखनेवाला धन्वन्तरी वैद्यका नौकर साक्षीभूत है । क्रियानयकर क्रियाकी प्रधानतासे सिद्धि होती, जैसे किसी अंधेने महाकष्टसे किसी पाषाणके खंभेको पाकर अपना माथा फोड़ा, वहाँपर उस अंधेके मस्तकमें जो लोहू (रक्त)का विकार था, वह दूर हो गया, इस कारणसे उसकी आँखें खुल गईं, और उस जगह उसने खजाना पाया, इस प्रकार क्रिया-कष्टकर भी वस्तुकी प्राप्ति होती है । ज्ञाननयकर विवेककी ही प्रधानतासे वस्तुकी सिद्धि होती है, जैसे किसी रत्नके परीक्षक पुरुषने किसी अज्ञानी दीन पुरुषके हाथमें चिंतामणिरत्न देखा, तब उस दीनपुरुषको बुलाकर अपने घरके कोनेमें से एक मुट्ठी चनेके अन्नकी देकर उसके बदले चिंतामणिरत्न ले लिया, उसी प्रकार क्रिया-कष्टके विना ही वस्तुकी सिद्धि होती है। व्यवहारनयकर यह आत्मा बंध मोक्षावस्थाकी द्विविधामें प्रवर्तता है, जैसे एक परमाणु दूसरे परमाणुसे बंधता है, और खुलता है, उसी प्रकार यह आत्मा बंध मोक्ष अवस्थाको पुद्गलके साथ धारण करता है । निश्चयनयकर परद्रव्यसे बंध मोक्षावस्थाकी द्विविधाको नहीं धारण करता, केवल अपने ही परिणामसे बंध मोक्ष अवस्थाको धरता है, जैसे अकेला परमाणु बंध मोक्ष अवस्थाके योग्य अपने स्निग्ध रूक्ष गुण परिणामको धरता हुआ बंध मोक्ष अवस्थाको धारण करता है । अशुद्धनयकर यह आत्मा उपाधिजन्य स्वभावको लिये हुए है, जैसे एक मिट्टी घड़ा, सरवा, आदि अनेक भेद लिये हुए होती है । शुद्धनयकर उपाधि रहित अभेद स्वभावरूप है, जैसे भेदभाव रहित केवल मृत्तिका होती है । इत्यादि अनन्त नयोंसे वस्तुकी सिद्धि होती है। वस्तु अनेक तरह वचन-विलाससे दिखलाई जाती है, जितने वचन हैं, उतने ही नय हैं, जितने नय हैं, उतने ही मिथ्यावाद हैं । जो एक नयको सर्वथा मानें, तो मिथ्यावाद होता है, और जो कथंचित् माना जाय, तो यथार्थ अनेकतारूप सर्व वचन होता है, इसलिये एकान्तपनेका निषेध है। एक ही बार वस्तुको अनेक नयकर सिद्ध करते हैं । यह आत्मा नय और प्रमाणसे जाना जाता है, जैसे एक समुद्र जब जुदी जुदी नदियोंके जलसे सिद्ध किया जावे, तब गंगा यमुना आदिके सफेद नीलादि जलोंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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