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कुन्दकुन्दविरचितः
[अ० ३, गा० ७१न्तकालमनन्तभवान्तपरावर्तेरनवस्थितवृत्तयः संसारतत्त्वमेवावबुध्यताम् ॥ ७१ ॥ अथ मोक्षतत्त्वमुद्घाटयति
अजधाचारविजुत्तो जत्थपदणिच्छिदो पसंतप्पा । अफले चिरं ण जीवदि इह सो संपुण्णसामण्णो ॥ ७२ ॥ अयथाचारवियुक्तो यथार्थपदनिश्चितः प्रशान्तात्मा।
अफले चिरं न जीवति इह स संपूर्णश्रामण्यः ।। ७२ ॥ यस्त्रिलोकचूलिकायमाननिर्मलविवेकदीपिकालोकशालितया यथावस्थितपदार्थनिश्चयनिवर्तितौत्सुक्यस्वरूपमन्थरसततोपशान्तात्मा सन् स्वरूपमेकमेवाभिमुख्येन चरनयथाचारवियुक्तो नित्यं ज्ञानी स्यात् स खलु संपूर्णश्रामण्यः साक्षात् श्रमणो हेलावकीणसकलपाक्तनकर्मफलखादनिष्पादितनूतनकर्मफलखाच्च पुनः प्राणधारणदैन्यमनास्कन्दन् द्वितीयभावपरावर्ताभावात् शुद्धस्वभावावस्थितत्तिर्मोक्षतत्त्वमबुध्यताम् ॥ ७२ ॥ भाविनमिति । अयमत्रार्थः-इत्थंभूतसंसारपरिभ्रमणपरिणतपुरुषा एवाभेदेन संसारस्वरूपं ज्ञातव्यमिति ।। ७१ ॥ अथ मोक्षस्वरूपं प्रकाशयति-अजधाचारविजुत्तो निश्चयव्यवहारपञ्चाचारभावनापरिणतत्वादयथाचारवियुक्तः विपरीताचाररहित इत्यर्थः । जत्थपदणिच्छिदो सहजानन्दैकस्वभावनिजपरमात्मादिपदार्थपरिज्ञानसहितत्वाद्यथार्थपदनिश्चितः पसंतप्पा विशिष्टपरमोपशमभावपरिणतनिजात्मद्रव्यभावनासहितत्वात्प्रशान्तात्मा जो यः कर्ता सो संपुण्णसामण्णो स संपूर्णश्रामण्यः सन् चिरं ण जीवदि चिरं बहुतरकालं न जीवति न तिष्ठति अफले शुद्धात्मसंवित्तिसमुत्पन्नसुखामृतरसास्वादरहितत्वेनाफले संसारे । किम् । शीघ्र मोक्षं गच्छतीति । अयमत्र भावार्थः-इत्थंभूतमोक्षतत्त्वपरिणत पुरुष एवाभेदेन मोक्षस्वरूपं ज्ञातव्यमिति लिये ऐसे श्रमणाभास मुनिको संसारतत्व जानना चाहिये, दूसरा कोई संसार नहीं है, जो जीव मिथ्याबुद्धि लिये हुए हैं, वे ही जीव संसार हैं ।। ७१ ॥ आगे मोक्षतत्त्वको प्रगट करते हैं-[अयथाचारवियुक्तः] जो पुरुष मिथ्या आचरणसे रहित हैं, अर्थात् यथावत् स्वरूपाचरणमें प्रवर्तते हैं, [ यथार्थपदनिश्चितः] जैसा कुछ पदार्थोंका स्वरूप है, वैसा ही जिसने निश्चल श्रद्धान कर लिया है, [प्रशान्तास्मा और जो राग द्वेषसे रहित है, ऐसा [सः] वह पुरुष [संपूर्णश्रामण्यः] सम्पूर्ण मुनिपदवी सहित हुआ [इह] इस [अफले] फल रहित संसारमें [चिरं] बहुत कालतक [न जीवति] प्राणोंको नहीं धारण करते हैं, थोड़े कालतक ही रहते हैं । भावार्थ-त्रिलोकका चूडामणिरत्न समान निर्मल विवेकरूपी दीपकके प्रकाशसे जिस महामुनिने यथावत् पदार्थोंका निश्चय किया है,
और एक अपने ही स्वरूपको मुख्यपनेसे आचरता है, विपरीत आचरणसे रहित हुआ, सदाकाल ज्ञानी है, ऐसा परिपूर्ण मुनिपदवीका धारक महामुनि पूर्व बँधे समस्त कर्म-फलोंकी निर्जरा करता है, नवीन कर्मबंध-फलका उत्पन्न करनेवाला नहीं होता, इससे फिर संसारिक प्राणोंके धारण करनेकी दीनताको नहीं करता । जिसके दूसरी पर्यायका अनाव है, ऐसा यह शुद्ध स्वरूपमें स्थित मुनि है, उसीको तुम मोक्ष
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