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________________ ७१) प्रवचनसारः व्याकुर्वज्जगतो विलक्षणपथां संसारमोक्षस्थिति जियात्संप्रति पञ्चरत्नमनघं सूत्रैरिमैः पञ्चभिः ॥ अथ संसारतत्त्वमुद्घाटयति जे अजधागहिदत्था एदे तच्च त्ति णिच्छिदा समये। अचंतफलसमिद्धं भमंति ते तो परं कालं ॥७१ ॥ ये अयथागृहीतार्था एते तत्त्वमिति निश्चिताः समये । अत्यन्तफलसमृद्धं भ्रमन्ति ते अतः परं कालम् ॥ ७१ ॥ ये स्वयमविवेकतोऽन्यथैव प्रतिपद्यार्थानित्थमेव तत्वमिति निश्चयमारचयन्तः सततं समुपचीयमानमहामोहमलमलीमसमानसतया नित्यमज्ञानिनो भवन्ति ते खलु समये स्थिता अप्यनासादितपरमार्थश्रामण्यतया श्रमणाभासाः सन्तोऽनन्तकर्मफलोपभोगमाग्भारभयंकरमनव्यवहाररत्नत्रयगुणाधिकसंसर्गाद्गुणवृद्धिर्भवतीति सूत्रार्थः ॥ ७० ॥ इतःपरं पञ्चमस्थले संक्षेपेण संसारस्वरूपस्य मोक्षस्वरूपस्य च प्रतीत्यर्थ पञ्चरत्नभूतगाथापञ्चकेन व्याख्यानं करोति । तद्यथा। अथ संसारस्वरूपं प्रकटयति-अत्यन्तफलसमृद्धं भ्रमन्ति न विद्यतेऽन्त इत्यत्यन्तं ते. परं कालं द्रव्यक्षेत्रकालभवभावपञ्चप्रकारसंसारपरिभ्रमणरहितशुद्धात्मस्वरूपभावनाच्युताः सन्तः परिभ्रमन्ति । कम् । परं कालम् अनन्तकालम् । कथंभूतम् । नारकादिदुःखरूपात्यन्तफलसमृद्धम् । पुनरपि कथंभूतम् । अतो वर्तमानकालात्परं उत्कृष्टतासे परम दशाको धारण करे । इसलिये हे भव्यो ! समस्त वस्तुकी प्रकाशनेवाली केवलज्ञानानन्दमयी अविनाशी अवस्थाको सब तरहसे पाकर अपने अतीन्द्रिय सुखको अनुभवो ॥ ७० ॥ इस प्रकार यह शुभोपयोगका अधिकार पूर्ण हुआ। आगे पंच रत्नोंको पाँच गाथाओंसे कहते हैं। ये पंच रत्न इस सिद्धान्तके मुकुट हैं, और भगवन्तके अनेकान्तमतको संक्षेपसे कहते हैं, और संसार मोक्षकी स्थितिको प्रगट करते हैं, इसलिये ये पंच रत्न जयवन्ते होवें । संसारतत्त्व १, मोक्षतत्व २, मोक्षतत्वका साधन ३, मोक्षतत्त्वसाधन सर्वमनोरथस्थान कथन ४, और शिष्यजनोंको शास्त्र-पठनका लाभ ५, ये पांच रत्न हैं । आगे पाँचोंमें से प्रथम ही संसारतत्त्वको कहते हैं-[ये] जो पुरुष [समये] जिनमतमें द्रव्यलिंग अवस्था धारणकर तिष्ठते भी हैं, लेकिन [अयथागृहीतार्थाः] अन्यथा पदार्थोंका स्वरूप ग्रहण करते हुए [एते तत्त्वं] जो पदार्थ हमने जानलिये हैं, ये ही वस्तुका स्वरूप हैं, [इति] ऐसा मिथ्यापना मानकर [निश्चिताः] निश्चय कर बैठे हैं, [ते] ऐसे वे श्रमगाभास मुनि [अतः] इस वर्तमानकालसे आगे [अत्यन्तफलसमृद्धं] अनन्तभ्रमणरूपी फलकर पूर्ण [परं कालं] अनंतकालपर्यंत [भ्रमन्ति ] भटकते हैं। भावार्थ-ये अज्ञानी मुनि मिथ्याबुद्धिसे पदार्थका श्रद्धान नहीं करते हैं, अन्यकी अन्य कल्पना करते हैं, और सदा महामोह मल्लकर चित्तकी मलिनतासे अविवेकी हैं, यद्यपि द्रव्यलिंगको धारण कर रहे हैं, तो भी परमार्थ मुनिपनेको नहीं प्राप्त हुए हैं, जो मुनिके समान मालूम पड़ते हैं, वे अनंतकालतक अनंतपरावर्तनकर भयानक कर्म-फलको भोगते हुए भटकते हैं। इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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