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________________ कुन्दकुन्दविरचितः [ अ० ३, गा० ४२ ज्ञेयज्ञाक्रियान्तरनिवृत्तिसूत्र्यमाणद्रष्टृज्ञातृतत्त्ववृत्तिलक्षणेन चारित्रपर्यायेण च ३०६ भाव्यभावकभावविजृम्भितातिनिर्भरेतरेतरसंचलनबलादङ्गाङ्गिभावेन ज्ञानपर्यायेण त्रिभिरपि यौगपद्येन परिणतस्यात्मनो यदात्मनिष्ठत्वे सति संयतखं तत्पानकवदनेकात्मकस्यैकस्यानुभूयमानतायामपि समस्तपरद्रव्यपरावर्तत्वादभिव्यक्तैकाय्य लक्षणश्रामण्यापरनामा मोक्षमार्ग एवावगन्तव्यः । तस्य तु सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इति भेदात्मकत्वात्पर्यायप्रधानेन व्यवहारनयेनैकाग्र्यं मोक्षमार्ग इत्यभेदात्मकत्वाद्रव्यप्रधानेन निश्चयनयेन विश्वस्यापि भेदाभेदात्मकत्वात्तदुभयमिति प्रमाणेन प्रज्ञप्तिः । मदो स ऐकाग्र्यगत इति मतः संमतः सामण्णं तस्स पडिपुण्णं श्रामण्यं चारित्रं यतित्वं तस्य परिपूर्णमिति । तथाहि—भावकर्मद्रव्यकर्मनो कर्मभ्यः शेषपुद्गलादिपञ्चद्रव्येभ्योऽपि भिन्नं सहजशुद्धनित्यानन्दैकस्वभावं मम संबन्धि यदात्मद्रव्यं तदेव ममोपादेयमितिरुचिरूपं सम्यग्दर्शनम् । तत्रैव परिच्छित्तिरूपं सम्यग्ज्ञानं तस्मिन्नेव स्वरूपे निश्चलानुभूतिलक्षणं चारित्रं चेत्युक्तस्वरूपं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रत्रयं पानकवदनेकमप्यभेदनयेनैकं यत् तत्सविकल्पावस्थायां व्यवहारेणैकाग्र्यं भण्यते । निर्विकल्पसमाधिकाले तु निश्चयेनेति तदेव च नामान्तरेण परमसाम्यमिति तदेव परमसाम्यं पर्यायनामान्तरेण शुद्धोपयोगलक्षणः श्रामण्यापरनामा मोक्षमार्गों ज्ञातव्य इति । तस्य तु मोक्षमार्गस्य सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इति भेदात्मकत्वात्पर्यायप्रधानेन व्यवहारनयेन निर्णयो भवति । ऐकाग्र्यं मोक्षमार्ग इत्यभेदात्मकत्वात् द्रव्यप्रधा I तिपद [ परिपूर्ण ] पूर्ण हुआ जानना । भावार्थ - ज्ञेय, ज्ञायक, तत्त्वकी यथावत्प्रतीतिका होना सम्यग्दर्शन है; ज्ञेय, ज्ञायकका यथार्थ जान लेना, सम्यग्ज्ञान है; और अन्य क्रियासे निवृत्त होके दर्शनस्वरूप आत्मामें प्रवृत्ति ' चारित्र' कहा जाता है । इन तीनों ही भावोंका आत्मा भावक है, ये भाव्य हैं, इन भाव्य भावोंके बढ़नेसे अति परिपूर्ण परस्पर मिलाप है, आत्मा अंगी है, ये तीनों भाव अंग हैं, अंग अंगीको एकता है । इस प्रकार एक भावको परिणत हुए आत्माके स्वरूपमें लीन होनेरूप जो संयमभाव है, वह यद्यपि सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रके भेदसे अनेक है, तथापि एकस्वरूप ही है । जैसे आम तथा इमली आदिका बनाया हुआ 'पना' मिष्ट खट्टा चरपरा सुगंध द्रव्य आदिके भेदसे अनेक है, तथापि सबको मिलकर एक पर्याय धारण करता है, इससे एक है, उसी प्रकार वह संयम यद्यपि रत्नत्रय से भेद लिये हुए है, तो भी तीनों भावोंका एक संयमरूप पर्याय है, इसलिये एकरूप है, एकरूप संयमभाव सब परद्रव्यसे रहित है, प्रगट एकाग्रतारूप मुनिपद है, और यही मोक्षमार्ग जानना । उस मोक्षमार्गको जो दर्शन ज्ञान चारित्र ऐसे भेदकर कहना है, यह भेदस्वरूप पर्यायकी विवक्षाकर व्यवहारनय से है, और एकाग्रतारूप मोक्षमार्ग ऐसा जो कथन है, वह अभेदस्वरूप द्रव्यार्थिककी विवक्षाकर निश्चयनयसे जानना । जितने कुछ पदार्थ संसार में हैं, वे सब भेद अभेदस्वरूप हैं । इसलिये भेदकर कहना व्यवहार है, और अभेदकर कहना वह निश्चय है, इन दोनोंकी सिद्धि प्रमाणसे होती है । यह मोक्षमार्ग निश्वयकर एक है, व्यवहारकर अनेक होजाता है; ज्ञान, दर्शन, चारित्र, इन तीन भेदोंको लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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