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________________ ४२]. प्रवचनसारः ३०५ तापः, इदं ममोत्कर्षणमिदमपकर्षणमयं ममाकिंचित्कर इदमुपकारकमिदं ममात्मधारणमयमत्यन्तविनाश इति मोहाभावात् सर्वत्राप्यनुदितरागद्वेषद्वैतस्य सततमपि विशुद्धदृष्टिज्ञप्तिस्वभावमात्मानमनुभवतः शत्रुबन्धुसुखदुःखप्रशंसानिन्दालोष्टकाञ्चनजीवितमरणानि निर्विशेषमेव ज्ञेयखेनाक्रम्य ज्ञानात्मन्यात्मन्यचलितवृत्तेर्यत्किल सर्वतः साम्यं तत्सिद्धागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतखयोगपद्यात्मज्ञानयोगपद्यस्य संयतस्य लक्षणमालक्षणीयम् ॥ ४१ ॥ अथेदमेव सिद्धागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतखयोगपद्यात्मज्ञानयोगपद्यसंयतवमैकाग्र्यलक्षणश्रामण्यापरनाम मोक्षमार्गलेन समर्थयति दसणणाणचरित्तेसु तीसु जुगवं समुहिदो जो दु। एयग्गगदो त्ति मदो सामण्णं तस्स पडिपुण्णं ॥ ४२ ॥ दर्शनज्ञानचरित्रेषु त्रिषु युगपत्समुत्थितो यस्तु । एकाग्रगत इति मतः श्रामण्यं तस्य परिपूर्णम् ॥ ४२ ॥ ज्ञेयज्ञातृतत्त्वतथाप्रतीतिलक्षणेन सम्यग्दर्शनपर्यायेण ज्ञेयज्ञातृतत्त्वतथानुभूतिलक्षणेन समताभावनापरिणतनिजशुद्धात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपनिर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्ननिर्विकारपरमालादैकलक्षणसुखामृतपरिणतिस्वरूपं यत्परमसाम्यं तदेवपरमागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानां योगपद्येन तदा निर्विकल्पात्मज्ञानेन च परिणततपोधनस्य लक्षणं ज्ञातव्यमिति ।। ४१ ॥ अथ यदेव संयततपोधनस्य साम्यलक्षणं भणितं तदेव श्रामण्यापरनामा मोक्षमार्गो भण्यत इति प्ररूपयति-दंसणणाणचरित्तेसु तीसु जुगवं समुहिदो जो दु दर्शनज्ञानचारित्रेषु त्रिषु युगपत्सम्यगुपस्थित उद्यतो यस्तु कर्ता एयग्गगदो त्ति स्तुति, निंदा सोना, लोहा, जीवन, मरण इत्यादि इष्ट, अनिष्ट विषयोंमें मुनिके भेद नहीं है, समताभाव है। यह मेरा है, यह पर है, यह आनन्द है, यह दुःख है, यह मुझको उत्तम है, यह मुझको हीन है, यह उपकारी है, यह कुछ नहीं, यह जीवन है, यह मेरा विनाश है, इत्यादि जो अनेक विकल्प हैं, वे मोहके अभावसे मुनिके नहीं होते, इसलिये महामुनि राग द्वेषसे रहित हैं, सदाकाल निर्मल ज्ञान दर्शनमयी आत्माको अनुभवते हैं, सब इष्ट अनिष्ट विषयोंको ज्ञेयरूप जानते हैं, रागी होके कर्ता नहीं हैं, स्वरूपमें समस्त संकल्प, विकल्पोंसे रहित होके निश्चल तिष्ठे हुए हैं, ऐसे मुनिके जो समताभाव है, वही महामुनिका लक्षण है, इसी लक्षणसे मुनिके आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान, संयमभाव इनकी एकता और आत्मज्ञानकी एकता सिद्ध हुई जान पड़ती है, इसलिये समभाव मुनिका प्रगट लक्षण है ॥ ११ ॥ आगे पूर्ण सिद्ध हुई, जो यह आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान, संयमभावकी एकता और आत्मज्ञानकी एकता यही एकाग्रतारूप मोक्षमार्ग है, इसीका दूसरा नाम मुनिपदवी है, यह कहते हैं-यः] जो पुरुष [दर्शनज्ञानचरित्रेषु] सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, [त्रिषु] इन तीन भावोंमें [युगपत्] एक ही समय [समुत्थितः] अच्छी तरह उद्यमी हुआ प्रवर्तता है, वह [एकाग्रगतः] एकाप्रताको प्राप्त है, [इति मतः] ऐसा कहा है, [तु] और [तस्य] उसी पुरुषके [श्रामण्यं] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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