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________________ ३६ ] ज्ञेयत्वमापद्यन्ते स्वयमेव, विचित्रगुणपर्यायविशिष्टसर्वद्रव्यव्यापकानेकान्तात्मकश्रुतज्ञानोपयोगीभूय विपरिणमनात् । अतो न किंचिदप्यागमचक्षुषामदृश्यं स्यात् ।। ३५ ।। अथागमज्ञानतत्पूर्वतत्त्वार्थश्रद्धानतदुभयपूर्वसंयतत्वानां यौगपद्यस्य मोक्षमार्गलं नियमयतिआगमपुव्वा दिट्ठी ण भवदि जस्सेह संजमो तस्स । णत्थीदि भणदि सुतं असंजदो होदि किघ समणो ॥ ३६ ॥ आगमपूर्वा दृष्टिर्न भवति यस्येह संयमस्तस्य । नास्तीति भणति सूत्रमसंयतो भवति कथं श्रमणः ॥ ३६ ॥ प्रवचनसारः ܕ इह हि सर्वस्यापि स्यात्कारकेतनागमपूर्विकया तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणया दृष्टया शून्यस्य स्वपरविभागाभावात् कायकषायैः सहैक्यमध्यवसतोऽनिरुद्धविषयाभिलाषतया षड्जीवनिकायपरोक्षरूपेण केवलज्ञानसमानत्वात् पश्चादागमाधारेण स्वसंवेदनज्ञाने जाते स्वसंवेदनज्ञानबलेन केवलज्ञाने च जाते प्रत्यक्षा अपि भवन्ति । ततः कारणादागमचक्षुषा परंपरया सर्वं दृश्यं भवतीति ॥ ३५ ॥ एवमागमाभ्यासकथनरूपेण प्रथमस्थले सूत्रचतुष्टयं गतम् । अथागमपरिज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानतदुभयपूर्वक संयतत्वत्रयस्य मोक्षमार्गत्वं नियमयति — आगमपुव्वा दिट्ठी ण भवदि जस्सेह आगमपूर्विका दृष्टिः सम्यक्त्वं नास्ति यस्येह लोके संजमो तस्स णत्थि संयमस्तस्य नास्ति इदि भणदि इत्येवं भणति कथयति । किं कर्तृ । सुत्तं सूत्रमागमः । असंजदो होदि किध समणो असंयतः सन् श्रमणस्तपोधनः कथं भवति न जानकर भावश्रुत ज्ञानके उपयोगी होकर परिणमे हैं, इस कारण महामुनि आगमके बलसे सबको देखते हैं, इसी लिये आगम- नेत्रसे कुछ भी अनदीखता नहीं रहता । इस कारण मोक्षाभिलाषीको अभ्यास करना योग्य है || ३५ || आगे सिद्धान्तका ज्ञान और उस सिद्धान्तके अनुसार श्रद्धान और ज्ञान श्रद्धान संयुक्त संयम ये तीनों एक कालमें होवें, तो मोक्षमार्ग होता है, ऐसा निश्चय करते हैं – [ इह ] इस लोकमें [यस्य ] जिस जीवके [आगमपूर्वा ] पहले अच्छी तरह सिद्धान्तको जानकर [ दृष्टिः ] सम्यग्दर्शन [ न भवति ] नहीं हो, [ तस्य ] तो उसके [ संयमः ] मुनिकी क्रियारूप आचार [ नास्ति ] नहीं [इति ] यह बात [ सूत्रं ] जिनप्रणीत सिद्धान्त [ भणति ] कहता है, [असंयतः ] और जिसके संयमभाव नहीं है, वह पुरुष [ कथं ] कैसे [श्रमणः ] मुनि [भवति ] हो सकता है ? नहीं हो सकता । भावार्थ -- जिस पुरुषके प्रथम ही आगमको जानकर पदार्थोंका श्रद्धान न हुआ हो, उस पुरुषके संयमभाव भी नहीं होता, यह निश्चय है, और जिसके संयम नहीं हैं, वह मुनि नहीं कहा जाता । जिसके आगमको जानकर श्रद्धान हुआ हो, वही मुनि कहलाता है, अन्यथा नहीं कहा जाता । इसी कथनको विशेषतासे दिखलाते हैं— ज्ञान दर्शन चारित्रका जो एक ही बार होना उसको मोक्षमार्ग कहते हैं, क्योंकि जो जीव अनेकान्त ध्वजाकर विराजमान आगम-ज्ञानके अनुसार श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शनसे रहित है, उसके भेदविज्ञानके अभावसे स्वपरका भेद नहीं होता, कषाय परिणामोंसे एकताका अभ्यास होता है, वहाँ पर राग, द्वेष, मोह, भावसे विषयाभिलाषाका निरोध नहीं होता, इन्द्रियें विषयोंमें प्रवर्ततीं प्र. ३८ Jain Education International २९७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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