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________________ ३४ ] अथागम एवैकथर्मोक्षमार्गमुपसर्पतामित्यनुशास्तिआगमवक्खू साहू इंदियचक्कूणि सव्वभूदाणि । देवा य ओहिचक्खू सिद्धा पुण सव्वदो चक्खू ॥ ३४ ॥ आगमचक्षुः साधुरिन्द्रियचक्षूंषि सर्वभूतानि । देवाश्राधिचक्षुषः सिद्धाः पुनः सर्वतश्चक्षुषः ॥ ३४ ॥ इह तावद्भगवन्तः सिद्धा एवं शुद्धज्ञानमयत्वात्सर्वतश्चक्षुषः शेषाणि तु सर्वाण्यपि भूतानि मूर्तद्रव्यावसक्तदृष्टिवादिन्द्रियचक्षूंषि, देवास्तु सूक्ष्मत्वविशिष्टमूर्तद्रव्यग्राहित्वादवधिचक्षुषः । अथ च dsपि रूपद्रव्यमात्रदृष्टत्वेनेन्द्रियचक्षुभ्यऽविशिष्यमाणा इन्द्रियचक्षुष एव । एवममीषु समस्तेष्वपि संसारिषु मोहोपहततया ज्ञेयनिष्ठेषु सत्सु ज्ञाननिष्ठख मूलशुद्धात्मतत्त्वसंवेदनसाध्यं सर्वतश्चक्षुस्त्वं म सिद्धयेत् । अथ तत्सिद्धये भगवन्तः श्रमणा आगमचक्षुषो भवन्ति । तेन ज्ञेयज्ञानयोरन्योfर्थना परमागमाभ्यास एव कर्तव्य इति तात्पर्यार्थः ॥ ३३ ॥ अथ मोक्षमार्गार्थिनामागम एव दृष्टिरित्याख्याति—आगमचक्खू शुद्धात्मादिपदार्थप्रतिपादकपरमागमन्चक्षुषो भवन्ति । के ते । साहू निश्चयरत्नत्रयाधारेण निजशुद्धात्मसाधकाः साधवः इंदियचक्खूणि निश्चयेनातीन्द्रिया मूर्तकेवलज्ञानादिगुणस्वरूपाण्यपि व्यवहारेणानादिकर्मबन्धवशादिन्द्रियाधीनत्वेनेन्द्रियचक्षूंषि भवन्ति । कानि कर्तृणि । सव्वभूदाणि सर्वभूतानि सर्वसंसारिजीवा इत्यर्थः । देवा य ओहिचक्खू देवा अपि च सूक्ष्ममूर्तपुद्गलद्रव्यविषयावधिचक्षुषः सिद्धा पुण सव्वदो चक्खू सिद्धाः पुनः शुद्धबुद्वैकस्वभावजीवा जीवलोकाकाशप्रमितशुद्धा संख्येय सर्वनाश नहीं होता । इसलिये इन कर्मोंके क्षयके निमित्तकारण आगमका अभ्यास करना योग्य है ॥ ३३॥ आगे मोक्षमार्गी जीवोंके एक सिद्धान्त ही नेत्र है, यह कहते हैं - [ साधुः ] मुनि [आगमचक्षुः ] सिद्धान्तरूपी नेत्रोंवाला होता है, अर्थात् मुनिके मोक्षमार्गकी सिद्धिके निमित्त आगम-नेत्र होते हैं, [सर्वभूतानि ] समस्त संसारी जीव [ इन्द्रियचक्षूंषि ] मन सहित स्पर्शनादि छह इन्द्रियोंरूप चक्षुवाले हैं, अर्थात् संसारी जीवोंके इष्ट अनिष्ट विषयोंके जाननेके लिये इन्द्रिय ही नेत्र हैं, [च] और [देवाः ] चार तरहके देव [ अवधिचक्षुषः ] अवधिज्ञानरूप नेत्रोंवाले हैं, अर्थात् देवताओंके सूक्ष्म मूर्तीक द्रव्य देखनेको अवधिज्ञान नेत्र हैं, लेकिन वह अवधिज्ञान इन्द्रियज्ञानसे विशेष नहीं, क्योंकि अवधि मूर्तद्रव्यको ग्रहण करता है, और इन्द्रिय नेत्र भी मूर्तीकको ग्रहण करता है, इससे इन दोनोंमें समानता है, [पुनः ] तथा [सिद्धाः ] अष्टकर्म रहित सिद्धभगवान् [ सर्वतः चक्षुषः ] सब ओरसे नेत्रोंवाले हैं। भावार्थ – संसारमें जितने संसारी जीव हैं, वे सब अज्ञानसे आच्छादित हैं, इस कारण परज्ञेय पदाथौमें मोहित हैं, ज्ञानस्वरूप शुद्धात्मज्ञानसे रहित हैं, इससे इनके अतीन्द्रिय सबका देखनेवाला नेत्र नहीं है, सर्वदर्शी तो एक सिद्धभगवान् हैं, उस सिद्धपदकी प्राप्तिके निमित्त जो मोक्षमार्गी महामुनि हैं, वे आगम-नेत्रके धारक होते हैं, उस आमम-नेत्र से स्वरूप पररूपका भेद करते हैं। यद्यपि ज्ञेय ज्ञानकी परस्पर एकता हो रही है, भेद नहीं किया जाता है, सो भी आगम-नेत्रके बलसे लक्षणभेद जुदा जुदा Jain Education International प्रवचनसारः For Private & Personal Use Only २९५ www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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