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________________ २९१ कुन्दकुन्दविरचितः [अ० ३, गा० ३३तथाहि-न तावन्निरागमस्य निरवधिभवापगाप्रवाहवाहिमहामोहमलमलीमसस्यास्य जगतः पीतोन्मत्तकस्येवावकीणविवेकस्याविविक्तेन ज्ञानज्योतिषा निरूपयतोऽप्यात्मात्मप्रदेशनिश्चितशरीरादिद्रव्येषूपयोगमिश्रितमोहरागद्वेषादिभावेषु च स्वपरनिश्चायकागमोपदेशपूर्वकस्वानुभवाभावादयं परोऽयमात्मेति ज्ञान सिद्धयेत् । तथा च त्रिसमयपरिपाटीप्रकटितविचित्रपर्यायप्राग्भारागाधगम्भीरस्वभावं विश्वमेव ज्ञेयीकृत्य प्रतपतः परमात्मनिश्चायकागमोपदेशपूर्वकस्वानुभवाभावात् ज्ञानस्वभावस्यैकस्य परमात्मनो ज्ञानमपि न सिद्धयेत् । परात्मपरमात्मज्ञानशून्यस्य तु द्रव्यकर्मारब्धैः शरीरादिभिस्तत्प्रत्ययैर्मोहरागद्वेषादिभावैश्च सहैक्यमाकलयतो वध्यघातकविभागाभावान्मोहादिद्रव्यभावकर्मणां क्षपणं न सिद्धयेत् । तथा च ज्ञेयनिष्ठतया प्रतिवस्तु पातोत्पातपरिणतलेन ज्ञप्तेरासंसारात्परिवर्तमानायाः परमात्मनिष्ठवमन्तरेणानिवार्यपरिवर्ततया ज्ञप्तिपरिवतरूपकर्मणां क्षपणमपि न सिद्धयेत् । अतः कर्मक्षपणार्थिभिः सर्वथागमः पर्युपास्यः ॥ ३३ ॥ यउ णियदेहहं परमत्थु । सो अंधउ अवरहं अंधयह किं दरिसावइ पंथु ।।" इति दोहकसूत्रकथितायागमपदसारभूतमध्यात्मशास्त्रं चाजानन् पुरुषो रागादिदोषरहिताव्याबाधसुखादिगुणस्वरूपनिजात्मद्रव्यस्य भावकर्मशब्दाभिधेयै रागादिनानाविकल्पजालैनिश्चयेन कर्मभिः सह भेदं न जानाति तथैव कर्मारिविध्वंसकस्वकीयपरमात्मतत्त्वस्य ज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मभिरपि सह पृथक्त्वं न वेत्ति । तथा चाशरीरलक्षणशुद्धात्मपदार्थस्य शरीरादिनोकर्मकर्मभिः सहान्यत्वं न जानाति । इत्थंभूतभेदज्ञानाभावाद्देहस्थमपि निजशुद्धात्मानं न रोचते । समस्तरागादिपरिहारेण न च भावयति । ततश्च कथं कर्मक्षयो भवति न कथमपीति । ततः कारणान्मोक्षास्वरूप देखते हैं, जानते हैं, शरीरादि परद्रव्यमें और उपयोगसे मिले हुए राग, द्वेष, मोह, भावोंमें एकता मानते हैं । स्वपर भेदका कारण जो सिद्धान्त उसके उपदेशसे जिसके आत्माका अनुभव नहीं हुआ है, इस कारण उसके यह आत्मा है, यह पर है, ऐसे भेदविज्ञानकी सिद्धि नहीं होती । और निर्विकल्प समाधिसे एक परमात्मज्ञानकी भी सिद्धि नहीं होती। वह परमात्मा तीन कालसंबंधी अनंत नाना प्रकारकी पर्यायों सहित लोक अलोकरूप समस्त ज्ञेयको एक समयमें जानकर प्रकाशमान है, ऐसे केवलज्ञान स्वभावरूप आत्माको नहीं जानता है । जो परमात्माके भेदविज्ञानसे शून्य है, और परमात्मज्ञानसे भी शून्य है, वह पुरुष द्रव्यकर्म, भावकर्म नोकर्मसे आत्माको एक (मिला हुआ) मानता है, ऐसा नहीं समझता, कि ये कर्म आत्माके घातक हैं, आत्मा इनसे घाता जाता है, इसी लिये आत्माके स्वभाव नहीं हैं, ऐसा भेद नहीं जानता, और समस्त विकल्पोंसे रहित होके स्वरूपको नहीं अनुभवता, तो बतलाइये कि ऐसे जीवके मोह आदिक द्रव्य भावकर्मीका क्षय किस तरहसे होवे ? नहीं हो सकता, और वही जीव अपनी भूलसे पर ज्ञेयोंमें तिष्ठता है, हरएक पदार्थमें ग्रहण और त्यागसे राग द्वेष भावरूप परिणमन करता है, इसलिये उस जीवका ज्ञान अनादि कालसे उलटा हो रहा है, परमात्मस्वरूपमें स्थिर नहीं होता। ऐसे जीवके अथिर शुद्ध क्षयोपशमरूप ज्ञानकर्मकी भी क्षपणा नहीं होती। जो कि भेदविज्ञानसे शून्य है, और परमात्मज्ञानसे शून्य है । इस कारण अज्ञानीके द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म, अथिर ज्ञानकर्म, इनका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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