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________________ ३३] प्रवचनसारः २९३ प्रवृत्तदृशिज्ञप्तित्तिरूपात्मतत्त्वैकाग्र्याभावात् शुद्धात्मतत्त्वप्रवृत्तिरूपं श्रामण्यमेव न स्यात् । अतः सर्वथा मोक्षमार्गापरनाम्नः श्रामण्यस्य सिद्धये भगवदर्हत्सर्वज्ञोपज्ञे प्रकटानेकान्तकेतने शब्दब्रह्मणि निष्णातेन मुमुक्षुणा भवितव्यम् ॥ ३२॥ अथागमहीनस्य मोक्षाख्यं कर्मक्षपणं न संभवतीति प्रतिपादयति आगमहीणो समणो णेवप्पाणं परं वियाणादि । अविजाणतो अटे खवेदि कम्माणि किध भिक्खू ॥ ३३ ॥ आगमहीनः श्रमणो नैवात्मानं परं विजानाति । अविजाननन् क्षपयति कर्माणि कथं भिक्षुः ॥ ३३ ॥ न खल्वागममन्तरेण परात्मज्ञानं परमात्मज्ञानं वा स्यात्, न च परात्मज्ञानशुन्यस्य परमात्मज्ञानशून्यस्य वा मोहादिद्रव्यभावकर्मणां ज्ञप्तिपरिवर्तरूपकर्मणां वा क्षपणं स्यात् । त्परमागमाच्च पदार्थपरिच्छित्तिर्भवति आगमचेट्ठा तदो जेट्ठा ततः कारणादेव मुक्तलक्षणागमपरमागमे च चेष्टा प्रवृत्तिः ज्येष्ठा प्रशस्येत्यर्थः ॥ ३२ ॥ अथागमपरिज्ञानहीनस्य कर्मक्षपणं न भवतीति प्ररूपयतिआगमहीणो समणो णेवप्पाणं परं वियाणादि आगमहीनः श्रमणो नैवात्मानं परं वा विजानाति अविजाणंतो अटे अविजाननान्परमात्मादिपदार्थान् खवेदि कम्माणि किध भिक्खू क्षपयति कर्माणि कथं भिक्षुर्न कथमपि इति । इतो विस्तरः----"गुणजीवापज्जत्ती पाणा सण्णा य मग्गणाओ य । उवओगो वि य कमसो वीसं तु परूवणा भणिदा ॥” इति गाथाकथिताद्यागममजानन् तथैव "भिण्णउ जेण ण जाणियह मुनिपद है, उसकी सिद्धि के निमित्त अहंत सर्वज्ञ कथित प्रगट अनेकान्त ध्वजासहित ब्रह्मरूप सिद्धांत मुक्तिवांछक पुरुषोंकर आदर करने योग्य है । सिद्धान्तके अभ्याससे पदार्थांका निश्चय होता है, उस निश्चयसे एकाग्रता होती है, उस एकाग्रतासे मुनिपद होता है, मुनिपद और मोक्षमार्ग एक है । इस कारण मोक्षाभिलाषीको आगमका अभ्यास करना उचित है ॥ ३२ ॥ आगे आगमसे जो रहित है, उसके मोक्षरूप कर्मोंकी क्षपणा (क्षय) नहीं होती, यह कहते हैं--[आगमहीनःश्रमणः] सिद्धान्तकर रहित मुनि [आत्मानं] नोकर्म, द्रव्यकर्म, भावकर्मसे रहित शुद्ध जीवद्रव्यको और [परं] पर शरीरादि द्रव्य भाव कर्मोको [नैव] निश्चयकर नहीं [विजानाति] जानता है, और [अर्थान् ] जीव अजीवादि पदार्थोंको [अविजानन् ] नहीं जानता हुआ [भिक्षुः] मुनि [कर्माणि] द्रव्यभावरूप समस्त कर्मोंका [कथं ] कैसे [क्षपयति] नाश कर सकता है । भावार्थ-जिस जीवको सिद्धान्तका ज्ञान न हो, और आगमके पढ़ने सुननेरूप अभ्याससे रहित होवे, उसको अपना और परका ज्ञान नहीं होता, और निर्विकल्परूप परमात्माका भी ज्ञान नहीं होता है, उसीको दिखलाते हैं-अनंत संसाररूपी नदीका बढ़ानेवाला जो यह महामोह है, उससे कलंकित (मलीन) हुए जगत-जीव हैं, वे भगवंतप्रणीत आगमके विना विवेकसे रहित हैं, जैसे धतूरेको पीकर उन्मत्त (बावला) हुआ मनुष्य करने योग्य कार्य और अकार्यको नहीं जानता, उसी तरहसे अनजान हो रहे हैं, पर और आत्माको एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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