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कुन्दकुन्दविरचितः
[अ० ३, गा० ३२कदाचिनिश्चिकीर्षाकुलितचेतसः समन्ततो दोलायमानस्यात्यन्ततरलतया कदाचिच्चिकीर्षाज्वरपरवशस्य विश्वं स्वयं सिसृक्षोविश्वव्यापारपरिणतस्य प्रतिक्षणविजृम्भमाणक्षोभतया कदाचिबुभुक्षाभावितस्य विश्वं स्वयं भोग्यतयोपादाय रागद्वेषदोषकल्माषितचित्तवृत्तेरिष्टानिष्टविभागेन प्रवर्तितद्वैतस्य प्रतिवस्तुपरिणममानस्यात्यन्तविसंस्थुलतया कृतनिश्चयस्य निःक्रियनिर्भोगं युगपदापीतविश्वमप्यविश्वतयैकं भगवन्तमात्मानमपश्यतः सततं वैयग्र्यमेव स्यात् । न चैकाग्र्यमन्तरेण श्रामण्यं सिद्धयेत् , यतो नैकाग्र्यस्यानेकमेवेदमिति पश्यतस्तथाप्रत्ययाभिनिविष्टस्यानेकमेवेदमिति जानतस्तथानुभूतिभावितस्यानेकमेवेदमितिमत्यर्थविकल्पव्यावृत्तचेतसा संततं प्रवर्तमानस्य तथा वृत्तिदुःस्थितस्य चैकात्मप्रतीत्यनुभूतिवृत्तिस्वरूपसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपरिणतिशयति एयग्गगदो समणो ऐकाग्र्यगतः श्रमणो भवति । अत्रायमर्थः-जगत्त्रयकालत्रयवर्तिसमस्तद्रव्यगुणपर्यायैकसमयपरिच्छित्तिसमर्यसकलविमलकेवलज्ञानलक्षणनिजपरमात्मतत्त्वसम्यश्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपमैकाम्यं भण्यते । तत्र गतस्तन्मयत्वेन परिणतः श्रमणो भवति । एयग्गं णिच्छिदस्स ऐकाय पुनर्निश्चितस्य तपोधनस्य भवति । केषु । अत्थेसु टङ्कोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावो योऽसौ परमात्मपदार्थस्तत्प्रभृतिवर्थेषु णिच्छित्ती आगमदो सा च पदार्थनिश्चितिरागमतो भवति । तथाहि-जीवभेदकर्मभेदप्रतिपादका गमाभ्यासाद्भवति न केवलमभ्यासात्तथैवागमपदे सारभूताच्चिदानन्दैकपरमात्मतत्वप्रकाशकादध्यात्माभिधानाकरनेकी इच्छासे समस्त द्रव्योंके व्यापाररूप परिणमन करता है, और समय समयमें अहंबुद्धिसे क्षोभभावकी हवासे क्षोभित समुद्रकी तरह क्षोभित हुआ, कभी भोगनेकी इच्छा करता है, समस्त त्रैलोक्यका भोक्ता अपनेको मानता है, सवको भोग्य जानता है, कि यह मेरी वस्तु है, मैं इसका भोगनेवाला हूँ, और राग द्वेष भावोंसे कलङ्कित (मलिन) चित्त होता है, इष्ट अनिष्ट वस्तुओंमें द्विविधभेद मानकर प्रवर्तता है, हरएक वस्तुमें आत्मबुद्धिसे परिणमता है, अत्यंत शिथिल भावकर बहिर्मुख हुआ परमें आत्माका निश्चय करता है, और वह अकर्ता, अभोक्ता अपनी ज्ञान-शक्तिसे एक ही समय समस्त लोकालोकका पीनेवाला (जाननेवाला) और अपने स्वरूपसे एक है, ऐसे भगवंत आत्माको देखता जानता नहीं है, हमेशा चञ्चलतासे क्लेशयुक्त रहता है। इस कारण पदार्थोके निश्चय विना एकाग्रता नहीं होती, इसीसे पदार्थोंका निश्चय करना योग्य है । एकाग्रता विना मुनिपदकी सिद्धि नहीं होती, क्योंकि वह स्वरूपको पर उपाधिसे अनेकरूप देखता है, अमेकतारूप प्रतीतिके आवेश से अनेकरूप जानता है, अनेक ही स्वरूप देखता है, अनेकरूप अनुभव करता है, कि मेरा स्वरूप अनेक है, सब परभावोंसे रहित एक स्वरूपको देखता, जानता, अनुभवता नहीं है, इसी लिये हरएक पदार्थमें निरंतर आत्मभावसे प्रवर्तता है, संकल्प विकल्परूप चित्तकी प्रवृत्ति धारण करता है। इस प्रकार एकाग्रता विना अथिर दुस्थित हुआ पुरुष अपने एक स्वरूपके अनुभवकी प्रवृत्तिकर ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप आत्मतत्त्वकी एकाग्रताको कैसे पासकता है ? जहाँपर एकाग्रता न हो, वहाँ शुद्धात्मतत्त्व अनुभवरूप यतिपद किस तरह हो सके ? नहीं होता । इससे यह बात सिद्ध हुई, कि जिसका दूसरा नाम मोक्षमार्ग है, ऐसा जो
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