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प्रवचनसारः
एयग्गगदो समणो एयग्गं णिच्छिदस्स अत्थेसु । णिच्छिती आगमदो आगमचेट्टा तदो जेहा ॥ ३२ ॥ ऐकायगतः श्रमणः ऐकाय्यं निश्चितस्य अर्थेषु । निश्चितिरागमत आगमचेष्टा ततो ज्येष्ठा || ३२ ॥
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श्रमणो हि तावदैकाग्र्यगत एव भवति । ऐकाग्र्यं तु निश्चितार्थस्यैव भवति । अर्थनिश्चयस्वागमादेव भवति । तत आगम एव व्यापारः प्रधानतरः, न चान्या गतिरस्ति । यतो न खल्वागममन्तरेणार्था निश्चेतुं शक्यन्ते तस्यैव हि त्रिसमयप्रवृत्तत्रिलक्षणसकलपदार्थसार्थयाथात्म्यावगमसुस्थितान्तरङ्गगम्भीरत्वात् । न चार्थनिश्चयमन्तरेणैकाग्र्यं सिद्धयेत् यतोऽनिश्चितार्थस्य परनामा मोक्षमार्गाधिकारः कथ्यते । तत्र चत्वारि स्थलानि भवन्ति, तेषु प्रथमतः आगमाभ्यासमुख्यत्वेन 'एयग्गमणो' इत्यादि यथाक्रमेण प्रथमस्थले गाथाचतुष्टयम् । तदनन्तरं भेदाभेदरत्नत्रय स्वरूपमेव मोक्षमार्ग इति व्याख्यानरूपेण 'आगमपुत्र्वा दिट्ठी' इत्यादि द्वितीयस्थले सूत्रचतुष्टयम् । अतः परं द्रव्यभावसंयमकथनरूपेण 'चागो य अणारंभो' इत्यादि तृतीयस्थले गाथाचतुष्टयम् । तदनन्तरं निश्रयव्यवहारमोक्षमार्गौपसंहारमुख्यत्वेन 'मुज्झदि वा' इत्यादि चतुर्थस्थले गाथाद्वयम् । एवं स्थलचतुष्टयेन तृतीयान्तराधिकारे समुदायपातनिका । तद्यथा - अथैकाय्यगतः श्रमणो भवति । तच्चैकाग्र्यमागमपरिज्ञानादेव भवतीति प्रकानाम मुनीश्वरपद भी है, चाहे कोई मुनीश्वर कहो, अथवा मोक्षमार्ग कहे, नाममात्रका भेद है, वस्तु-भेद नहीं है। मुनि जो है, वे ज्ञान - दर्शन - चारित्ररूप मोक्षमार्ग है, इस कारण एकता है । उस मोक्षमार्गका मूलसाधन जिनप्रणीत आगम है, इसलिये प्रथम ही सिद्धान्तको प्रवृत्ति दिखलाते हैं - [ एकाग्रगतः ] जो ज्ञान–दर्शन–चारित्रकी स्थिरताको प्राप्त हुये हैं, वह [ श्रमणः ] मुनि कहलाते हैं, और [ अर्थेषु निश्चितस्य ] जीव अजीवादि पदार्थोंके निश्चय ज्ञानवालेके [ ऐकाग्र्यं ] स्थिर भाव होता है, तथा [आगमतः निश्चितिः ] सर्वज्ञ वीतरागप्रणीत सिद्धान्त से पदार्थोंका यथार्थ ज्ञान होता है, [ततः ] इस कारण [आगमचेष्टा ] सिद्धान्तके अभ्यासकी प्रवृत्ति [ ज्येष्ठा ] प्रधान है । भावार्थ - मुनि बही है, जिसके ज्ञान - दर्शन - चारित्र स्थिर हुए हैं, और जो जीव संशय-विमोह - विभ्रमसे रहित होकर जीवादि पदार्थोंको जानता है, श्रद्धान करता है, उसके एकाग्रता होती है, तथा जो भगवतप्रणीत आगमका अभ्यास करे, तो यथार्थ सब पदार्थों का ज्ञाता देखनेवाला होता है, इस कारण पहले मोक्षमार्गीको सिद्धान्तके पठनकी प्रवृत्ति करनी योग्य है । सिद्धान्तके विना यथार्थ पदार्थोंका निश्चय नहीं किया जाता। त्रिकालवर्ती उत्पाद, व्यय, धौव्यसहित द्रव्य-गुण-पर्याय - लक्षणवाले सकल पदार्थोंके समूहका यथार्थ ज्ञान अकेले उस आगमसे ही होता है, उसी ज्ञानसे अन्तरङ्ग स्थिरतासे गम्भीर होता है, इसलिये आगम ही से पदार्थोंका निश्चय होता है । जिसके पदार्थोंका निश्चय न हो, वह पुरुष निश्चय स्वरूपमें आकुल चित्त हुआ स्थिर भावको नहीं धारण कर सकता, सब जगह डाँवाँडोल रहता है । अत्यन्त चञ्चल भावसे कभी कर्तृत्व ज्वरके आवेशसे पराधीन हुआ तीन लोकका आप कर्ता होता है, सम्पूर्ण परभावोंके उत्पन्न
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