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________________ २९० कुन्दकुन्दविरचितः [अ० ३, गा० ३१देशकालज्ञस्यापि बालवृद्धश्रान्तग्लानखानुरोधेनाहारविहारयोरल्पलेपवं विगणय्य यथेष्टं प्रवर्तमानस्य मृद्वाचरणीभूय संयमं विराध्यासंयतजनसमानीभूतस्य तदाखे तपसोऽनवकाशतयाशक्यप्रतिकारो महान् लेपो भवति तन्न श्रेयानुत्सर्गनिरपेक्षोऽपवादः । अतः सर्वथोत्सर्गापवादविरोधदौस्थित्यमाचरणस्य प्रतिषेध्यं तदर्थमेव सर्वथानुगम्यश्च परस्परसापेक्षोत्सर्गापवादविजृम्भितवृत्तिः स्याद्वादः। इत्येवं चरण पुराणपुरुषैर्जुष्टं विशिष्टादरैरुत्सर्गादपवादतश्च विचरद्ववीः पृथग्भूमिकाः। आक्रम्य क्रमतो निवृत्तिमतुलां कृत्वा यतिः सर्वत श्चित्सामान्यविशेषभासिनि निजद्रव्ये करोतु स्थितिम् ।। ३१ ॥ इत्याचरणप्रज्ञापनं समाप्तम् । अथ श्रामण्यापरनाम्नो मोक्षमार्गस्यैकाग्रलक्षणस्य प्रज्ञापनं तत्र तन्मूलसाधनभूते प्रथममागम एव व्यापारयतिसन् यदि कथंचिदौषधपथ्यादिसावधभयेन व्याधिव्यथादिप्रतीकारमकृत्वा शुद्धात्मभावनां न करोति तर्हि महान् लेपो भवति । अथवा प्रतीकारे प्रवर्तमानोऽपि हरीतकीव्याजेन गुडभक्षणवदिन्द्रियसुखलाम्पटयेन संयमविराधनां करोति तथापि महान् लेपो भवति । ततः कारणादुत्सर्गनिरपेक्षमपवादं त्यक्त्वा शुद्धात्मभावनारूपं शुभोपयोगरूपं वा संयममविराधयन्नौषधपथ्यादिनिमित्तोत्पन्नाल्पसावद्यमपि बहुगुणराशिमुत्सर्गसापेक्षमपवादं स्वीकरोतीत्यभिप्रायः ॥ ३१ ॥ एवं 'उवयरणं जिणमग्गे' इत्याचेकादशगाथाभिरपवादस्त्र विशेषविवरणरूपेण चतुर्थस्थलं व्याख्यातम् । इति पूर्वोक्तक्रमेण 'ण हि शिरवेक्खो चागो' इत्यादि त्रिंशद्गाथाभिः स्थलचतुष्टयेनापवादनामा 'द्वितीयान्तराधिकारः' समाप्तः । अतः परं चतुर्दशगाथापर्यन्तं श्रामण्याऐसी अवस्थामें महान् कर्म-बंधसे लिप्त होता है। इसलिये जो अपवादमार्गी उत्सर्गअवस्थासे मैत्रीभाव लिए हुए न होवे, तो वह अपवादमार्गी अच्छा नहीं है । इस कारण उत्सर्ग अपवादमें जो विरोध होवे, तो मुनिके संयमकी स्थिरता न हो। इसलिये उत्सर्ग अपवादमें मैत्रीभाव होना योग्य है । भगवानका मत अनेकान्त है, जिस तरह संयमकी रक्षा होवे, उसी तरह प्रवर्ते, ऐसा नहीं है, कि संयमका नाश हो, अथवा न हो, परन्तु अपनी एक अवस्थाको नहीं छोड़ना' ऐसा जिनमार्ग नहीं है, जिनमार्ग तो ऐसा है, कि कहीं अकेला अपवाद ही है, कहीं अकेला उत्सर्ग ही है, कहीं उत्सर्ग लिये अपवाद है, और कहीं अपवाद लिये उत्सर्ग है । जिस तरह संयम रहे, उसी तरह अपवादमें विरोध रहित हो । जो महापुरुष हैं, उन्होंने उत्सर्ग अपवादरूप नाना तरह की भूमिको क्रमसे अंगीकार की हैं । उसके बाद उत्कृष्ट दशाको प्राप्त होकर समस्त क्रिया-कांडसे निवृत्त हुए हैं । पश्वात् सामान्य विशेष स्वरूप चैतन्यरूप जो निजतत्त्व उसमें स्थिर हो रहे हैं । इसी क्रमसे अन्य भव्यजीव भी स्वरूपमें गुप्त रहें ॥ ३१ ॥ इस प्रकार आचार-विधि पूर्ण हुई । आगे एकाग्रतारूप मोक्ष-मार्गका स्वरूप कहते हैं, इस मोक्षमार्गका दूसरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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