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प्रवचनसारः
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३१] एव खाकृष्यन्ते । अथ देशकालज्ञस्यापि बालवृद्धश्रान्तग्लानखानुरोधेनाहारविहारयोः प्रवर्तमानस्य मृद्वाचरणप्रवृत्तवादल्पो लेपो भवत्येव तद्वरमुत्सर्गः । देशकालज्ञस्यापि बालवृद्धश्रान्तग्लानखानुरोधेनाहारविहारयोः प्रवर्तमानस्य मृद्वाचरणप्रवृत्तवादल्प एव लेपो भवति तद्वरमपवादः । देशकालज्ञस्यापि बालवृद्धश्रान्तग्लानखानुरोधेनाहारविहारयोरल्पलेपभयेनाप्रवर्तमानस्यातिककेशाचरणीभूयाक्रमेण शरीरं पातयतः सुरलोकं प्राप्योद्वान्तसमस्तसंयमामृतभारस्य तपसोऽनवकाशतयाशक्यप्रतिकारो महान् लेपो भवति । तन्न श्रेयानपवादनिरपेक्ष उत्सर्गः। कालं समं खमं उवधिं देशं कालं मार्गादिश्रमं क्षमं क्षमतामुपवासादिविषये शक्तिं उपधिं बालवृद्धश्रान्तग्लानसंबन्धिनं शरीरमात्रोपधिं परिग्रहमिति पश्च देशादीन् तपोधनाचरणसहकारिभूतानिति । तथाहिपूर्वकथितक्रमेण तावदुर्धरानुष्ठानरूपोत्सर्गे वर्तते । तत्र च प्रासुकाहारादिग्रहणनिमित्तमल्पलेपं दृष्ट्वा यदि न प्रवर्तते तदा आर्तव्यानसंक्लेशेन शरीरत्यागं कृत्वा पूर्वकृतपुण्येन देवलोके समुत्पद्यते । तत्र संयमाभावान्महान् लेपो भवति । ततः कारणादपवादनिरपेक्षमुत्सर्ग त्यजति । शुद्धात्मभावनासाधकमल्पलेपं बहुलाभमपवादसापेक्षमुत्सर्ग स्वीकरोति तथैव च पूर्वसूत्रोक्तक्रमेणापहृतसंयमशब्दवाच्येऽपवादे प्रवर्तते तावत्प्रवर्तमानः जाननेवाला अपवादमार्गी मुनि, बाल, वृद्ध, खेद, रोग, अवस्थाओंके वशीभूत होकर आहार विहार क्रियामें प्रवर्तता हुआ कोमल आचरणोंको आचरता है, और न प्रमादी हुआ अति कोमल आचरणकर संयमका नाश करता है । जहाँपर संयमका नाश हुआ जानता है, वहाँ कठोर क्रिया भी करता है, अति शिथिल भी नहीं होता । शरीरकी रक्षा करके संयमको पालता है, अल्प बंध भी होता है, ऐसी उत्सर्गअवस्थाको लिये हुए अपवादमार्गी मुनि बहुत अच्छा है, जो कि संयमको भी पालता है, और शरीरको भी डिगने नहीं देता । तथा देश कालादिका जाननेवाला उत्सर्गमुनि, बाल, वृद्ध, रोग, खेद, अवस्थाओंके होनेपर जो अल्प कर्मबंधके भयसे कोमल आचारको नहीं आचरण करे, आहार विहार क्रियामें नहीं प्रवर्ते, और मनमें यह जाने, कि मैं इस उत्कृष्ट उत्सर्ग संयमको धारण करता हूँ, मुझको । जघन्य दशास्वरूप अपवाद संयम योग्य नहीं है, तथा जो हीन अवस्थाको धारण करूँगा, तो बंध होगा, ऐसा जानकर उत्कृष्ट ही आचारका आचरण करे, तो वह मुनि अति कठोर तप करके शरीरका नाशकर देवलोकमें जाके उत्पन्न होता है, वहाँ संयमरूप अमृतका वमन (उल्टी) करता है, क्योंकि देवपद तपस्याका कारण नहीं है । इसलिये वहाँपर वही जीव महा कर्मबंधसे लिप्त होता है । इस कारण जो उत्सर्गमार्गी अपवादमार्गसे मैत्रीभाव नहीं करता, तो वह उत्सर्गमार्गी अच्छा नहीं है, जो कि शरीरका नाशकर संयमका नाश करता है । तथा जो देश कालादिका जाननेवाला अपवाद मुनि बाल, वृद्ध, खेद, रोग, अवस्थाओंके होनेपर आहार विहारमें प्रवृत्ति करे, और मनमें यह समझे, कि सिद्धान्तोंमें कहा है, कि जो अल्प बंध भी होवे, तो भी रोग खेदादि दशाओंके होनेपर वह मुनि कोमल आचारमें प्रवृत्ति करे, तो दोष नहीं है, ऐसा जानकर जो अति शिथिल (आलसी) होके स्वेच्छाचारी हुआ आहार विहारमें प्रवर्ते, तो वह संयमका नाश कर असंयमीके समान होवे, उस समय मुनिके तपका अभाव है,
प्रव. ३७
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