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________________ '२८८ कुन्दकुन्दविरचितः [अ० ३, गा० ३१चरणमाचरणीयमित्युत्सर्गसापेक्षोऽपवादः । अतः सर्वथोत्सर्गापवादमैत्र्या सौस्थित्यमाचरणस्य विधेयम् ॥ ३०॥ अथोत्सर्गापवादविरोधदौःस्थमाचरणस्योपदिशति आहारे व विहारे देसं कालं समं खमं उवधि। जाणित्ता ते समणो वदि जदि अप्पलेवी सो ॥ ३१ ॥ आहारे वा विहारे देश कालं श्रमं क्षमामुपधिम् ।। ज्ञाखा तान् श्रमणो वर्तते यधल्पलेपी सः॥ ३१ ॥ अत्र क्षमाग्लानखहेतुरुपवासः । बालवृद्धखाधिष्ठानं शरीरमुपधिः, ततो बालद्धश्रान्तग्लाना प्रासुकाहारादिकं गृह्णातीत्यपवादसापेक्ष उत्सर्गो भण्यते । यदा पुनरपवादलक्षणेऽपहृतसंयमे प्रवर्तते तथापि शुद्धात्मतत्त्वसाधकत्वेन मूलभूतसंयमस्य संयमसाधकत्वेन मूलभूतशरीरस्य वा यथोच्छेदो विनाशो न भवति तथोत्सर्गसापेक्षत्वेन प्रवर्तते । तथा प्रवर्तत इति कोऽर्थः । यथा संयमविराधना न भवति तथेत्युत्सर्गसापेक्षोपवाद इत्यभिप्रायः ॥ ३० ॥ अथापवादनिरपेक्षमुत्सर्ग तथैवोत्सर्गनिरपेक्षमपवादं च निषेधयंश्चारित्ररक्षणाय व्यतिरेकद्वारेण तमेवार्थ द्रढयति-वदि वर्तते । स कः कर्ता । समणो शत्रुमित्रादिसमचित्तः श्रमणः यदि । किम् । जदि अप्पलेवी सो यदि चेदल्पलेपी स्तोकसावधो भवति । कयोर्विषयोर्वर्तते । आहारे व विहारे तपोधनयोग्याहारविहारयोः । किं कृत्वा । पूर्व जाणित्ता ज्ञात्वा । कान् कर्मतापन्नान् । देसं आचरे, तो वह उत्सर्गमार्गकी अपेक्षा लिये हुए, अपवादमार्गी है । इससे यह बात सिद्ध हुई, कि उत्सर्ग और अपवाद इन दोनों मार्गों में जो परस्पर मैत्रीभाव होवे, तो मुनिके आचारकी स्थिरता अच्छी तरह होसकती है ॥ ३० ॥ आगे उत्सर्ग और अपवादमार्ग इन दोनोंमें आपसमें विरोध हो, तो मैत्रीभाव न होवे । उसके न होनेसे आचारकी स्थिरता नहीं होसकती, यह कहते हैं-[स श्रमणः] वह अपवादमार्गी अथवा उत्सर्गमार्गी मुनि [यदि] जो [अल्पलेपी] थोड़े कर्मबंधसे लिप्त होता है, तो [देशं] क्षेत्र [ कालं] शीत उष्णादि काल [श्रमं] मार्गादिकका खेद [क्षमां] उपवासादि करनेकी शक्ति [उपधि] और बाल, वृद्ध, रोगादि अवस्थायुक्त शरीररूप परिग्रह [तान्] इन पांचोंको [ज्ञात्वा] अच्छीतरह जानकर [आहारे] मुनि-योग्य आहार-क्रियामें [वा] अथवा [विहारे] हलन चलनादि क्रिया [वर्तते] प्रवृत्त होता है । भावार्थ-जो परमविवेकी उत्सर्गी अथवा अपवादी मुनि इन देश आदि पाँच भेदोंको जानकर जिस क्रियामें कर्मबंध थोडा हो, और संयमका भंग न हो, ऐसी आहार क्रिया प्रवर्ते, तो दोष नहीं है, क्योंकि संयमकी रक्षाके निमित्त जिस तरहसे शरीरका नाश न हो, उसी तरह कठोर अथवा कोमल क्रियामें प्रवर्तता है । इसलिये देश कालका जाननेवाला उत्सर्गमार्गी मुनि, बाल, वृद्ध, खेद, रोगी अवस्थाओंके कारक आहार विहारमें प्रवृत्त होता है, कोमल क्रियाको आचरता है, और अल्प कर्मबंध भी जिसमें होता है, ऐसी अपवाद अवस्थाको धारता हुआ उत्सर्गमुनि बहुत अच्छा है, जो कि शरीर-रक्षा करके भी संयमका भंग नहीं होने देता है, और देश कालादिका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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