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________________ २८४ कुन्दकुन्दविरचितः [अ० ३, गा० २९एककाल एवाहारो युक्ताहारः, तावतैव श्रामण्यपर्यायसहकारिकारणशरीरस्य धारणवात् । अनेककालस्तु शरीरानुरागसेव्यमानखेन प्रसह्य हिंसायतनीक्रियमाणो न युक्तः शरीरानुरागसेवकत्वेन च युक्तस्य अप्रतिपूर्णोदर एवाहारो युक्ताहारः तस्यै वामतिहतयोगतात् । पतिपूर्णोदरस्तु प्रतिहतयोगलेन कथंचित् हिंसायतनीभवन् न युक्तः। प्रतिहतयोगलेन न च युक्तस्य यथालब्ध एवाहारो युक्ताहारः तस्यैव विशेषप्रियखलक्षणानुरागशून्यत्वात् । अयथालब्धस्तु विशेष प्रियखलक्षणानुरागसेव्यमानदेन प्रसह्य हिंसायतनीक्रियमाणो न युक्तः । विशेषमियखलक्षणानुरागसेवकलेन न च युक्तस्य भिक्षाचरणेनैवाहारो युक्ताहारः तस्यैवारम्भशून्यखात् । अभेक्षाचरणेन खारम्भसंभवात्मसिद्धहिसायतनखेन न युक्तः। एवंविधाहारसेवनव्यक्तान्तरशुद्धिवान्न च युक्तस्य दिवस एवाहारो युक्ताहारः तदेव सम्यगवलोकनात् । अदिवसे तु सम्यगवलोकनाभावादनिवार्यहिंसायतनखेन न युक्तः। एवंविधाहारसेवनव्यक्तान्तरशुद्धिवान्न न्यूनोदरः जहालद्धं यथालब्धो न च स्वेच्छालब्धः चरणं भिक्खेण भिक्षाचरणेनैव लब्धो न च स्वपाकेन दिवा दिवैव न च रात्रौ । ण रसावेक्खं रसापेक्षो न भवति किंतु सरसविरसादौ समचित्तः ण मधुमंसं अमधुमांसः अमधुमांस इत्युपलक्षणेन आचारशास्त्रकथितपिण्डशुद्भिक्रमेण समस्तायोग्याहाररहित इति । एतावता किमुक्तं भवति । एवंविशिष्टविशेषणयुक्त एवाहारस्तपोधनानां युक्ताहारः कस्मादिति चेत् । चिदानन्दैकलक्षणनिश्चयप्राणरक्षणभूता रागादिविकल्पोपाधिरहिता या तु निश्चयनयेनाहिंसा तत्साधकरूपा बहिशरीरके अनुरागसे बार बार लेवे, तो वह प्रमाद दशासे द्रव्य-भावहिंसाका कारण होता है, इसलिये बार बार लेना अयोग्य है, एक ही काल लेना उचित है, और एक बार भी शरीरके अनुरागसे जो लिया जावे, तो वह भी अयोग्य है, संयमकी सिद्धिका कारण शरीरकी स्थितिके निमित्त जो लेना है, वह योग्य है, और एक बार भी पेट भरके आहार लेना है, वह भी अयोग्य है, क्योंकि बहुत आहारसे योगकी शिथिलता होनेपर प्रमाद-दशा होजाती है, वही हिंसाका कारण है, इसलिये उदर भरके भोजन करना योग्य नहीं है, ऊनोदर रहना ठीक है, और शरीरके अनुरागकर जो पेटभर भी न लिया जाय, तो भी वह योग्य आहार नहीं है, संयमका साधन शरीरकी स्थितिके निमित्त ही ऊनोदर रहना ठीक है। जैसा कुछ मिले, वैसा ही अंगीकार करे, ऐसा नहीं, कि अपने लिये करावे । इसलिये यथालब्ध आहार ठीक है, और यथालब्ध आहार भी जो विशेष इन्द्रियस्वादके अनुरागसे किया जावे, तो वह हिंसाका स्थान होता है, इसकारण निषेध योग्य है, यदि संयम-साधक शरीरकी स्थितिके निमित्त लिया जावे, तो वह योग्य है । भिक्षावृत्तिसे जो आहार लिया जावे, तो आरम्भ नहीं करना पड़ता, और यदि भिक्षावृत्तिसे नहीं लिया जावे, तो हिंसाका कारण आरम्भ अवश्य होता है । इसलिये वह निषिद्ध है, भिक्षावृत्ति योग्य है, तथा राग भावसे अंतरङ्गकी अशुद्धतासे भिक्षावृत्तिसे भी ग्रहण करना अयोग्य आहार कहा जाता है। संयम साधक शरीरकी स्थिति के लिये भिक्षा कर लेना योग्य है । दिनमें अच्छी तरह दिखलाई देता है, दयाका पालन होता है, इसलिये दिनका आहार योग्य है । रात्रिमें अच्छी तरह नहीं दिखलाई देता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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