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________________ २९] प्रवचनसारः २८३ लात्केवलदेहवे सत्यपि देहे 'किं किंचण' इत्यादिप्राक्तनसूत्रधोतितपरमेश्वराभिप्रायपरिग्रहेण न नाम ममायं ततो नानुग्रहार्हः किंतूपेक्ष्य एवेति परित्यक्तसमस्तसंस्कारखारहितपरिकर्मा स्यात् । ततस्तन्ममवपूर्वकानुचिताहारग्रहणाभावाद्युक्ताहारवं सिद्धयेत् । यतश्च समस्तामप्यात्मशक्तिं प्रकटयन्ननन्तरसूत्रोदितेनानशनस्वभावलक्षणेन तपसा तं देहं सर्वारम्भेणाभियुक्तवान् स्यात् । तत आहारग्रहणपरिणामात्मकयोगध्वंसाभावाधुक्तस्यैवाहारेण च युक्ताहारवं सिद्धयेत् ॥२८॥ अथ युक्ताहारस्वरूपं विस्तरेणोपदिशति एकं खलु तं भत्तं अप्पडिपुण्णोदरं जहालद्धं । चरण भिक्खेण दिवा ण रसावेक्खं ण मधुमंसं ॥ २९ ॥ एकः खलु स भक्तः अपरिपूर्णोदरो यथालब्धः। भैक्षाचरणेन दिवा न रसापेक्षो न मधुमांसः ॥ २९ ॥ अवसेसाई वोसरे" ॥ इति श्लोककथितक्रमेण देहेऽपि ममत्वरहितः आजुत्तो तं तवसा आयुक्तवान् आयोजितवांस्तं देहं तपसा । किं कृत्वा । अणिगृहिय अनिगूद्य प्रच्छादनमकृत्वा । काम् । अप्पणो सत्तिं आत्मनः शक्तिमिति । अनेन किमुक्तं भवति-यः कोऽपि देहाच्छेषपरिग्रहं त्यक्त्वा देहेऽपि ममत्वरहितस्तथैव तं देहं तपसा योजयति स नियमेन युक्ताहारविहारो भवतीति ।। २८ ।। अथ युक्ताहारत्वं विस्तरेणाख्याति-एकं खलु तं भत्तं एककाल एव खलु हि स्फुटं स भक्त आहारो युक्ताहारः कस्मादेकभक्तेनैव निर्विकल्पसमाधिसहकारिकारणभूतशरीरस्थितिसंभवात् । स च कथंभूतः । अप्पडिपुण्णोदरं यथाशक्त्या कही गई है, उसमें सर्वज्ञ वीतरागका अभिप्राय यह है, कि परिग्रह सर्वथा त्याज्य है, ऐसा जानके भगवंतकी आज्ञाको ग्रहणकर शरीरमें ममताभावसे रहित होता है, देहके संभालनेमें प्रवृत्त नहीं होता, ममत्व बुद्धिसे अयोग्य आहारको ग्रहण नहीं करता, इस कारण मुनिके योग्य आहारकी सिद्धि होती है। उस शरीरको अयोग्य आहारसे पोषण नहीं करता, यथाशक्ति तपस्यामें ही लगाता है। सारांश यह निकला कि मुनिके अंतरंग वीतराग भावका बल है, इसलिये सब आरम्भसे शरीरको उसमें लगाता है, जो कभी आहार भी लेता है, तो योग्य लेता है, इसलिये वैराग्यके बलसे योग्य आहारकी सिद्धि है ॥ २८ ॥ आगे योग्य आहारका स्वरूप विस्तारसे दिखलाते हैं-[स भक्तः] वह शुद्ध आहार [खलु] निश्चयकर [एकः] एक काल (वक्त) ग्रहण किया जाता है, तब योग्य आहार होता है, और वह योग्य आहार [अपरिपूर्णोदरः] नहीं पूर्ण होता है, पेट जिससे ऐसा होता है, [यथालब्धः] जैसा कुछ मिले, वैसा ही अंगीकार करने योग्य है, [भैक्षाचरणेन] भिक्षावृत्ति कर लेना योग्य है, [दिवा] दिनमें ही लेने योग्य है, [न रसापेक्षः] जिस आहारमें मिष्ट स्निग्धादि रसकी इच्छा न हो, तथा [ न मधुमांसः] शहद और मांसादि अयोग्य वस्तुएं जिसमें नहीं हैं ऐसा । भावार्थ-मुनिको एक ही बार आहार करना चाहिये, क्योंकि मुनि-पर्यायका सहायक शरीर है, उस शरीरको स्थिति एक बार आहार लेनेसे होजाती है, इसलिये एक वक्त लेना योग्य है, और जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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