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३०१८] प्रवचनसारः
२८५ च युक्तस्य । अरसापेक्ष एवाहारो युक्ताहारस्तस्यैवान्तःशुद्धिसुन्दरखात्। रसापेक्षस्तु अन्तरशुद्धया प्रसह्य हिंसायतनीक्रियमाणो न युक्तः। अन्तरशुद्धिसेवकत्वेन न च युक्तस्य अमधुमांस एवाहारो युक्ताहारः तस्यैवाहिंसायतनत्वात् । समधुमांसस्तु हिंसायतनवान्न युक्तः। एवंविधाहारसेवनव्यक्तान्तरशुद्धित्वान्न च युक्तस्य मधुमांसमत्र हिंसायतनोपलक्षणं तेन समस्तहिंसायतनशून्य एवाहारो युक्ताहारः ॥ २९ ॥ अथोत्सर्गापवादमैत्रीसौस्थित्यमाचरणस्योपदिशति--
बालो वा बुड्ढो वा समभिहदो वा पुणो गिलाणो वा ।
चरियं चरदु सजोग्गं मूलच्छेदो जधा ण हवदि ॥ ३० ॥ रङ्गपरजीवप्राणव्यपरोपणनिवृत्तिरूपा द्रव्याहिंसा च सा द्विविधापि तत्र युक्ताहारे संभवति । यस्तु तद्विपरीतः स युक्ताहारो न भवति । कस्मादिति चेत् । तद्विलक्षणभूताया द्रव्यरूपाया हिंसाया सद्भावादिति ॥२९॥ अथ विशेषेण मांसदूषणं कथयति
पक्केसु अ आमेसु अ विपञ्चमाणासु मंसपेसीसु। संतत्तियमुववादो तज्जादीणं णिगोदाणं ॥ *१८ ॥ जो पक्कमपकं वा पेसीं मंसस्स खादि फासदि वा।
सो किल-णिहणदि पिंडं जीवाणमणेगकोडीणं । *१९ ॥ जुम्मं । भणित इत्यध्याहारः । स कः । उववादो व्यवहारनयेनोत्पादः । किंविशिष्टः । संतत्तियं सान्ततिको इस कारण अवश्य हिंसा होती है, इसलिये रात्रिभोजन निषिद्ध है, और दिनका भी आहार सराग परिणामोंसे करना अयोग्य है, संयम-साधनके निमित्त योग्य है । जो आहार सरस होगा उससे अवश्य अंतरङ्ग अशुद्ध होगा, ऐसा होनेपर हिंसाका कारण हो जायगा इसलिये सरस आहार योग्य नहीं, नीरस आहार योग्य है । मधु मांस युक्त आहार हिंसाका स्थानक है, इसलिये निषेध किया गया है, इनसे रहित आहार योग्य है, और जिन वस्तुओंमें मधु मांसका दोष लगता हो, तथा हिंसा होती होवे, ऐसी वस्तुओंका आहार योग्य नहीं है, निःपाप आहार योग्य है । इससे यह बात सिद्ध हुई, कि जो आहार एक वक्त लिया जावे, पेट भरके न लिया जावे, भिक्षावृत्तिसे युक्त यथालब्ध दिनमें नीरस मांसादि दोष रहित लिया जावे, वह आहार योग्य है, इससे अन्य रीतिसे जो लेना है, वह अयोग्य है ॥ २९॥ आगे उत्सर्गमार्ग और अपवादमार्गमें मैत्रीभाव होवे, तो मुनिके आचारकी स्थिरता होसकती है, इसलिये इन दोनोमें मैत्रीभाव दिखलाते है-[बालो वा] बालक हो, [वा] अथवा [वृद्धः] बुड्ढा हो, [वा] अथवा [श्रमाभिहतः] तपस्यासे खिन्न (दुःखी) हुआ हो, [वा पुनः] अथवा [ग्लानः] रोगसे पीड़ित होवे, ऐसा मुनि [यथा मूलच्छेदः] जिसतरहसे मूलसंयमका घात [न भवति नहीं हो, उस तरहसे [स्वयोग्यां] अपनी शक्तिके अनुसार [चयों] आचरण [चरतु] करे । भावार्थ-उत्सर्गमार्ग. वहाँ है, जहाँपर मुनि, बाल, वृद्ध, खेद, रोग, इन चार अवस्थाओंकर सहित हो,
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