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कुन्दकुन्दविरचितः
इहलोगणिरावेक्खो अप्पडिबद्धो परम्मि लोयम्हि । जुत्ताहारविहारो रहिदकसाओ हवे समणो ॥ २६ ॥ इहलोकनिरापेक्षः अप्रतिबद्धः परस्मिन् लोके ।
युक्ताहारविहारो रहितकषायो भवेत् श्रमणः || २६ ॥
अनादिनिधनैकरूप शुद्धात्मतत्त्वपरिणतवादखिलकर्म पुद्गल विपाकात्यन्तविविक्तस्वभावलेन रहितकषायत्वात्तदात्वमनुष्यत्वेऽपि समस्त मनुष्यव्यवहार बहिर्भूतत्वेनेह लोकनिरपेक्षत्वात्तथा भवि - ष्यदमर्त्यादिभावानुभूतितृष्णाशून्यत्वेन परलोकाप्रतिबद्धताच्च परिच्छेद्यार्थोपलम्भप्रसिद्ध्यर्थप्रदीपपूरणोत्सर्पणस्थानीयाभ्यां शुद्धात्मतत्वोपलम्भप्रसिद्ध्यर्थ तच्छरीरसंभोजनसंचलनाभ्यां युक्ताहारविहारो हि स्यात् श्रमणः । इदमत्र तात्पर्यम् - यतो हि रहितकषायः ततो न तच्छरीरानुरागेण दिव्यशरीरानुरागेण वाहारविहारयोरयुक्त्या प्रवर्तते । शुद्धात्मतत्वोपलम्भसाधकश्रामण्यपर्यायपालनायैव केवलं युक्ताहारविहारः स्यात् ॥ २६ ॥
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[ अ० ३, गा० २६
इहलागणिरावेक्खो इहलोकनिरापेक्षः टङ्कोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावनिजात्मसंवित्तिविनाशकख्यातिपूजालाभरूपेहलोककाङ्क्षारहितः अप्पडिबद्धो परम्मि लोयम्हि अप्रतिबद्धः परस्मिन् लोके तपश्चरणे कृते दिव्यदेवस्त्री परिवारादिभोगा भवन्तीति, एवंविधपरलोके प्रतिबद्धो न भवति जुत्ताहारविहारो दवे युक्ताहारविहारो भवेत् । स कः । समणों श्रमणः । पुनरपि कथंभूतः । रहिदकसाओ निः कषायस्वरूपसंवित्यवष्टम्भबलेन रहितकषायश्चेति । अयमत्र भावार्थ:- योऽसौ इहलोकपरलोकनिरपेक्षत्वेन निःकषायत्वेन च प्रदीपस्थानीयशरीरे तैलस्थानीयं ग्रासमात्रं दत्त्वा घटपटादिप्रकाश्यपदार्थस्थानीयं निजपरमात्मपदार्थमेव निरीक्षते स एव युक्ताहारविहारो भवति, पुनरन्यः शरीरपोषणनिरत इति ॥ २६ ॥ अथ पञ्चदशप्रमादैयोंकी अभिलाषा रहित हुआ [ परस्मिन् लोके ] परलोकमें अर्थात् होनेवाली देवादिपर्यायोंमें [ अप्रतिबद्धः ] अभिलाषाकर नहीं बँधे हुए [ रहितकषायः ] राग द्वेष भावरूप कषायोंसे रहित होते हैं, [ युक्ताहारविहारः ] योग्य आहार विहार में [ भवेत् ] प्रवृत्ति करता है, अयोग्यको छोड़ता है । भावार्थ -- मुनीश्वरने अपना स्वरूप अनादि अनंत पुद्गलसे उत्पन्न हुए भावोंसे भिन्न जान लिया है, इसलिये कर्मके उदयसे जो मिली हुई मनुष्यादि पर्याय है, उसमें आत्म-बुद्धि नहीं करते, अर्थात् अपनी नहीं मानता, और कषायोंसे रहित है, इसलिये मनुष्य संबंधिनी क्रियासे रहित है, उन्हें इस लोकमें पंचेन्द्रीके विषयोंकी वाञ्छा नहीं है, तथा आगामी कालके देवादि गतिके दिव्य-सुखों के भोगनेको वाञ्छासे भी रहित हैं, इसलिये परलोककी भी अभिलाषासे बँधे हुये नहीं हैं । जैसे घट पटादि पदार्थोंके देखनेके लिये दीपक में तेल डालते हैं, और बत्ती आदि को भी सँभालते हैं, उसी प्रकार मुनि शुद्धात्मतत्त्वकी प्राप्तिके लिये शरीरको भोजनसे, तथा चलनादि क्रियासे, योग्य आहार विहार क्रियामें प्रवृत्त करते हैं । इससे यह कथन सिद्ध हुआ, कि मुनीश्वर कषाय भावोंसे रहित हैं, इसलिये अपने वर्तमान शरीरके अनुरागसे प्रवृत्ति नहीं करते, किन्तु शुद्धात्मतत्त्वकी सिद्धिके लिये मुनिपदवी पालनेके निमित्त केवल योग्य
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