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________________ २३] प्रवचनसारः २७३ ___ आत्मद्रव्यस्य द्वितीयपुद्गलद्रव्याभावात्सर्व एवोपधिः प्रतिषिद्ध इत्युत्सर्गः । अयं तु मिश्रकालक्षेत्रवशात्कश्चिदप्रतिषिद्ध इत्यपवादः । यदा हि श्रमणः सर्वोपधिप्रतिषेधमास्थाय परममुपेक्षासंयमं प्रतिपत्तुकामोऽपि विशिष्टकालक्षेत्रवशावसनशक्तिर्न प्रतिपत्तुं क्षमते तदापकृष्य संयम पतिपद्यमानस्तद्वहिरङ्गसाधनमात्रमुपधिमातिष्ठते । स तु तथा स्थीयमानो न खलूपधित्वाच्छेदः, प्रत्युत छेदप्रतिषेध एव । यः किलाशुद्धोपयोगाविनाभावी स छेदः । अयं तु श्रामण्यपर्यायसहकारिकारणशरीरवृत्तिहेतुभूताहारनिर्हारादिग्रहणविसर्जनविषयच्छेदप्रतिषेधार्थमुपादीयमानः सर्वथा शुद्धोपयोगाविनाभूतखाच्छेदप्रतिषेध एव स्यात् ॥ २२ ॥ अथाप्रतिषिद्धोपधिस्वरूपमुपदिशति____ अप्पडिकुटुं उवधि अपत्थणिजं असंजदजणेहिं । मुच्छादिजणणरहिदं गेण्हदु समणो जदि वि अप्पं ॥ २३ ॥ येनोपकरणेन शुद्धोपयोगलक्षणसंयमस्य छेदो विनाशो न विद्यते । कयोः । गहणविसग्गेसु ग्रहणविसर्गयोः यस्योपकरणस्यान्यवस्तुनो वा ग्रहणे स्वीकारे विसर्जने । किं कुर्वतः तपोधनस्य । सेवमाणस्स तदुपकरणं सेवमानस्य । समणो तेणिह बट्टदु कालं खेत्तं वियाणित्ता श्रमणस्तेनोपकरणेनेह लोके वर्तताम् । किं कृत्वा । कालं क्षेत्रं च विज्ञायेति । अयमत्र भावार्थ:-कालं पञ्चमकालं शीतोष्णादिकालं वा क्षेत्रं भरतक्षेत्रं मानुषजाङ्गलादिक्षेत्रं वा, विज्ञाय येनोपकरणेन स्वसंवित्तिलक्षणभावसंयमस्य बहिरङ्गद्रव्यसंयमस्य वा, छेदो न भवति तेन वर्तत इति ॥ २२ ॥ अथ पूर्वसूत्रोदितोपकरणस्वरूपं दर्शयति-अप्पडिकुटुं उवधि निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गसहकारिकारणत्वेनाप्रतिषिद्धमुपधिमुपकरणरूपोपधिं अपत्थणिज्जं असंजदजणेहिं कि सब परिग्रहका निषेध किया है, क्योंकि आत्माके एक अपने भावके सिवाय परद्रव्यरूप दूसरा पुद्गलभाव नहीं है, इस कारण उत्सर्गमार्ग परिग्रह रहित है, और यह विशेषरूप अपवादमार्ग है वह काल क्षेत्रके वश किसी एक परिग्रहको ग्रहण करता है, इसलिये अपवाद भेदरूप है । यही दिखलाते हैंजिस समय कोई एक मुनि सब परिग्रहको त्यागकर परम वीतराग संयमको प्राप्त होना चाहता है, वही मुनि किसी एक कालकी विशेषतासे अथवा क्षेत्रके विशेषसे हीन शक्ति होता है, तब वह वीतरागसंयम दशाको नहीं धारण कर सकता, इसलिये सरागसंयम अवस्थाको अंगीकार करता है, और उस अवस्थाका बाह्य साधन परिग्रह ग्रहण करता है । उस परिग्रहको ग्रहण कर तिष्ठते हुए मुनिके उस परिग्रहसे संयमका घात नहीं होता। संयमका घात वहाँ होता है, जहाँपर कि मुनिपदका घातक अशुद्धोपयोग होता है । यह परिग्रह तो संयमके घातके दूर करनेके लिये है । मुनिपदवीका सहकारी कारण शरीर है, और उस शरीरकी प्रवृत्ति आहार नीहारके ग्रहण त्यागसे होती है, उसमें संयमके घातके निषेधके लिये अंगीकार करते हैं । इस कारण अशुद्धोपयोगमयी जो संयमका घात है, उसको दूर करनेवाला परिग्रह है, इसलिये घातक नहीं है ॥ २२ ॥ आगे जिस परिग्रहका मुनिके लिये निषेध नहीं है, उसका स्वरूप दिखलाते हैं-[श्रमणः] अपवादमार्गी मुनि [उपधि] ऐसे परिग्रहको [गृह्णातु] ग्रहण करे, तो प्रव. ३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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