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________________ २६४ कुन्दकुन्दविरचितः [अ० ३, गा० १५विहारकर्मणि श्रामण्यपर्यायसहकारिकारणवेनापतिषिध्यमाने केवलदेहमात्रे उपधौ अन्योन्यबोध्यबोधकभावमात्रेण कथंचित्परिचिते श्रमणे शब्दपुद्गलोल्लाससंवलनकश्मलितचिद्भित्तिभागायां शुद्धात्मद्रव्यविरुद्धायां विकथायां चैतेष्वपि तद्विकल्पाचित्रितचित्तभित्तितया प्रतिषेध्यः प्रतिबन्धः ॥ १५ ॥ अथ को नाम छेद इत्युपदिशति अपयत्ता वा चरिया सयणासणठाणचंकमादीसु। समणस्स सव्वकाले हिंसा सा संतत्तिय त्ति मदा ॥ १६ ॥ अप्रयता वा चर्या शयनासनस्थानचक्रमणादिषु ।। श्रमणस्य सर्वकाले हिंसा सा संततेति मता ॥ १६॥ अशुद्धोपयोगो हि छेदः, शुद्धोपयोगरूपस्य श्रामण्यस्य छेदनात् तस्य हिंसनात् स एव च पुनर्देशान्तरविहारे वा उवधिम्हि शुद्धोपयोगभावनासहकारिभूतशरीरपरिग्रहे ज्ञानोपयोगकरणादौ वा समणम्हि परमात्मपदार्थविचारसहकारिकारणभूते श्रमणे समशीलसंघातकतपोधने वा । विकम्हि परमसमाधिविधातश्रृङ्गारवीररागादिकथायां चेति । अयमत्रार्थः-आगमविरुद्धाहारविहारादिषु तात्वत्पूर्वमेव निषिद्धः । योग्याहारविहारादिष्वपि ममत्वं न कर्तव्यमिति ॥ १५॥ एवं संक्षेपेणाचाराराधनादिकथिततपोधनविहारव्याख्यानमुख्यत्वेन चतुर्थस्थले गाथात्रयं गतम् । अथ शुद्धोपयोगभावनाप्रतिबन्धकच्छेदं कथयतिमदा मता संमता । का। हिंसा शुद्धोपयोगलक्षणश्रामण्यछेदकारणभूता हिंसा । कथंभूता । संतत्तिय त्ति संतता निरन्तरेति । का हिंसा मता । चरिया चर्या चेष्टा यदि चेत् । कथंभूता । अपयत्ता वा शरीरमात्र परिग्रह भी है, तथा गुरु शिष्यके भेदसे पठन-पाठन अवस्थामें दूसरे मुनियोंका सम्बन्ध भी है, और शुद्धात्म द्रव्यकी विरोधिनी पौद्गलिक शब्दोंके द्वारा कथा चर्चा भी है । यद्यपि मुनिके परद्रव्यरूप परिग्रह है, तथापि इनमें ममत्वबुद्धिरूप चित्तवृत्तिका निषेध हैं । यद्यपि मुनिने स्थूल परद्रव्यका त्याग तो प्रथम ही कर दिया है, तथापि मुनिपदमें भी इस प्रकारके सूक्ष्म परद्रव्यके अस्तित्वमें ममत्वभाव नहीं करना चाहिये, क्योंकि इनमें भी ममत्व भाव करनेसे शुद्धात्म द्रव्यवृत्तिरूप मुनिपदका भंग हो जाता है। इसलिये सूक्ष्म परद्रव्योंमें भी सम्बन्ध करनेका निषेध है ।। १५॥ आगे शुद्धोपयोगरूप यतित्वका मुनिके कौनसा भंग है, इस बातको बताते हैं-[वा] अथवा [श्रमणस्य] मुनिके [शयनासनस्थानचमणादिषु] सोने, बैठने, खड़े होने, चलने आदि अनेक क्रियाओंमें [या] जो [अप्रयता] यत्न रहित [चर्या] प्रवृत्ति होती है, [सा] वह [सर्वकाले] हमेशः [संतता] अखण्डित [हिंसा] चैतन्य प्राणोंका विनाश करनेवाली हिंसा है, [इति] इस प्रकार [मता] वीतराग सर्वज्ञदेवने कही है। भावार्थ-संयमका घात ही अशुद्ध उपयोग है, क्योंकि मुनिपद शुद्धोपयोगरूप है। अशुद्धोपयोगसे मुनिपदका नाश होता है, और अशुद्धोपयोगका होना यही हिंसा है, सबसे बड़ी हिंसा ज्ञानदर्शनरूप शुद्धोपयोगके घातसे ही होती है । वह अशुद्धोपयोग मुनिके निरंतर उस समय ही समझना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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