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________________ २६३ १५] प्रवचनसारः गुणमयततया चरितव्यं ज्ञानदर्शनस्वभावशुद्धात्मद्रव्यप्रतिबद्धशुद्धास्तिवमात्रेण वर्तितव्यमिति तात्पर्यम् ॥ १४ ॥ अथ श्रामण्यस्य छेदायतनखात् यतिजनासन्नः सूक्ष्मपरद्रव्यप्रतिबन्धोऽपि प्रतिषेध्य इत्युपदिशति भत्ते वा खमणे वा आवसधे वा पुणो विहारे वा। उवधिम्हि वा णिबद्धं णेच्छदि समणम्हि विकधम्हि ॥ १५॥ भक्ते वा क्षपणे वा आवसथे वा पुनर्विहारे वा। उपधौ वा निबद्धं नेच्छति श्रमणे विकथायाम् ॥ १५ ॥ श्रामण्यपर्यायसहकारिकारणशरीरवृत्तिहेतुमात्रवेनादीयमाने भक्ते तथाविधशरीरवृत्त्यविरोधेन शुद्धात्मद्रव्यनीरङ्गनिस्तरङ्गविश्रान्तिसूत्रणानुसारेण प्रवर्तमाने क्षपणे नीरङ्गनिस्तरङ्गान्तरङ्गद्रव्यप्रसिद्धयर्थमध्यास्यमाने गिरीन्द्रकन्दरप्रभृतावावसथे यथोक्तशरीरवृत्तिहेतुमार्गणार्थमारभ्यमाणे मात्मद्रव्ये वा जो सो पडिपुण्णसामण्णो य एवं गुणविशिष्टश्रमणः स परिपूर्णश्रामण्यो भवतीति । अयमत्रार्थः-निजशुद्धात्मभावनारतानामेव परिपूर्णश्रामण्यं भवतीति ॥ १४ ॥ अथ श्रामण्यच्छेदकारणत्वाप्रासुकाहारादिष्वपि ममत्वं निषेधयति-णेच्छदि नेच्छति । कम् । णिबद्धं निबद्धमाबद्धम् । क । भत्ते वा शुद्धात्मभावनासहकारिभूतदेहस्थितिहेतुत्वेन गृह्यमाणे भक्ते वा प्रासुकाहारे खमणे वा इन्द्रियदर्पविनाशकारणभूतत्वेन निर्विकल्पसमाधिहेतुभूते क्षपणे वानशने आवसधे वा परमात्मतत्वोपलब्धिसहकारिभूते गिरिगुहायावसथे वा पुणो विहारे वा शुद्धात्मभावनासहकारिभूताहारनीहारार्थव्यवहारार्थव्यवहारे वा । मुनिपदका कारण है । ऐसा समझकर अपने ज्ञान दर्शनादि अनंत गुणोंमें अपना सर्वस्व जान रत होना योग्य है, और अट्टाबीस मूलगुणोंमें यत्नसे प्रवृत्त होना योग्य है । इससे यह बात सिद्ध हुई, कि मुनिपदकी पूर्णता एक आत्मामें लीन होनेसे ही होती है, इस कारण अन्य परद्रव्यका सम्बन्ध त्यागना ही योग्य है ॥ १४ ॥ आगे मुनिके निकटमें यद्यपि सूक्ष्म परद्रव्य भी हैं, तथापि उनमें मुनिको रागभावपूर्वक सम्बन्ध निषिद्ध है, यह कहते हैं--जो महामुनि है, वह [भक्ते ] आहारमें [वा] अथवा [क्षपणे] इन्द्रियोंको उत्तेजित न होने देनेका कारण तथा निर्विकल्प समाधिके कारणभूत अनशनमें [वा] अथवा [आवसथे] गुफा आदिक निवासस्थलमें [वा पुनः] अथवा [विहारे] विहार-कार्यमें [वा] अथवा [उपधौ] शरीरमात्र परिग्रहमें [वा] अथवा [श्रमणे] दूसरे मुनियोंमें [वा] अथवा [विकथायां] अधर्म-चर्चामें [निबन्धं] ममत्वपूर्वक सम्बन्धको [न] नहीं [इच्छति] चाहता है। भावार्थ-मुनिपदका निमित्तकारण शरीर है, और शरीरका आधार आहार है, इसलिये उसको मुनि ग्रहण करते हैं, और अपनी शक्तिके अनुसार शुद्धात्मामें निश्चल स्थिरताके निमित्तभूत उपवासको स्वीकार करते हैं, और मनकी चंचलताको रोकनेके लिये एकान्त पर्वतकी गुफादिकके निवासको, तथा शरीरकी प्रवृत्तिके लिये आहार नीहार क्रिया विहारकार्यको भी करते हैं, और उनके मुनिपदवीका निमित्तकारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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