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________________ २६२ कुन्दकुन्दविरचितः [अ० ३, गा० १४यतनानि तदभावादेवाछिन्नश्रामण्यम् । अत आत्मन्येवात्मनो नित्याधिकृत्य वासे वा [गुरुवेन गुरूनधिकृत्य वासे वा] गुरुभ्यो विशिष्टे वासे वा नित्यमेव प्रतिषेधयन् परद्रव्यप्रतिबन्धान् श्रामण्ये छेदविहीनो भूत्वा श्रमणो वर्तताम् ॥ १३ ॥ अथ श्रामण्यस्य परिपूर्णायतनवात् स्वद्रव्य एव प्रतिबन्धो विधेय इत्युपदिशति चरदि णिबद्धो णिच्चं समणो णाणम्मि दंसणमुहम्मि । पयदो मूलगुणेसु य जो सो पडिपुण्णसामण्णो ॥ १४ ॥ चरति निबद्धो नित्यं श्रमणो ज्ञाने दर्शनमुखे । प्रयतो मूलगुणेषु च यः स परिपूर्णश्रामण्यः ॥ १४ ॥ एक एव हि स्वद्रव्यप्रतिबन्ध उपयोगमार्जकलेन मार्जितोपयोगरूपस्य श्रामण्यस्यपरिपूर्णतायतनं, तत्सद्भावादेव परिपूर्ण श्रामण्यम् । अतो नित्यमेव ज्ञाने दर्शनादौ च प्रतिबद्धेन मूलतपोधनैः सह भेदाभेदरत्नत्रयभावनया भव्यानामानन्दं जनयन् तपःश्रुतसत्वैकत्वसंतोषभावनापञ्चकं भावयन् तीर्थकरपरमदेवगगवरदेवादिमहापुरुषाणां चरितानि स्वयं भावयन् परेवां प्रकाशयंश्च विहरतीति भावः ॥ १३ ॥ अथ श्रामण्यपरिपूर्णकारगत्वात्स्वशुद्धात्मद्रव्ये निरन्तरमवस्थानं कर्तव्यमित्याख्याति-चरदि चरति वर्तते । कथंभूतः णिबद्धो आधीनः, णिच्चं नित्यं सर्वकालम् । सः कः कर्ता । समणो लाभालाभादिसमचित्तश्रमणः । क निबद्धः । णाणम्मि वीतरागसर्वज्ञप्रणीतपरमागमज्ञाने तत्फलभूतस्वसंवेदनज्ञाने वा दंसणमुहम्मि दर्शनं तत्त्वार्थश्रद्वानं तत्कलभूतनिजशुद्धात्मोपादेयरुचिरूपनिश्चयसम्यक्त्वं वा तत्प्रमुखेधनन्तसुखादिगुणेषु पयदो मूलगुणेसु य प्रगतः प्रयत्नपरश्च । केषु । मूलगुणेषु निश्चयमूलगुणाधारपरजब परद्रव्यका संबंध मुनिके दूर हो जायगा, तो सहज ही अंतरंग संयमका घात न होगा, तभी निर्दोष मुनिपदकी सिद्धि होगी। इस तरह परद्रव्यके विरक्त वीतरागभावोंमें लीन मुनि कहीं भी रहे, चाहे गुरुके पास रहे, अथवा अन्य जगह रहे, सभी जगह वह निर्दोष है, और जो परभावोंमें रागी द्वेषी होता है, वह सब जगह संयमका धाती होता है, तथा महा सदोषी है। इसलिये परद्रव्यके सम्बन्ध मुनिको सर्वथा निषेध किये गये हैं ॥ १३ ॥ आगे मुनिपदकी पूर्णताका कारण अपने आत्माका सम्बन्ध है, इसलिये आत्मामें लीन होना योग्य है, यही कहते हैं- [यः] जो [श्रमणः] मुनि [दर्शनमुखे] सम्यक् दर्शन आदि अनंतगुण सहित [ज्ञाने] ज्ञानस्वरूप आत्मामें [नित्यं] हमेशां [चरति] प्रवृत्त (लीन) होता है, [सः] वह [ मूलगुणेषु] २८ मूलगुणोंमें [प्रयतः] सावधान होकर उद्यमी हुआ [परिपूर्णश्रामण्यः ] अंतरङ्ग बाह्य संयम भंगसे रहित अखंडित यतिपदवी अर्थात् परिपूर्ण मुनिपदका धारक होता है । भावार्थ-अपने आत्मामें जो रत (लीन ) होना, वह परिपूर्ण मुनिपदवीका कारण है, क्योंकि जब यह अपनेमें रत होता है, तभी इसके परद्रव्यमें ममत्व भाव छूटता है, और जिस अवस्थामें यह परद्रव्यसे विरक्त हुआ, कि वहीं इसका उपयोग भी निर्मल हो जाता है, जिस जगह उपयोगकी निर्मलता है, वहाँ अवश्य ही मुनिपदकी सिद्धि होती है। इसलिये आत्मामें रत होना परिपूर्ण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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