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________________ प्रवचनसारः २६१ तदा जिनोदितव्यवहारविधिविदग्धश्रमणाश्रयणालोचनपूर्वकतदुपदिष्टानुष्ठानेन प्रतिसंधानम् ॥ ११-१२ ॥ अथ श्रामण्यस्य छेदायतनखात् परद्रव्यप्रतिबन्धा प्रतिषेध्या इत्युपदिशति अधिवासे व विवासे छेदविहणो भवीय सामण्णे।। समणो विहरदु णिचं परिहरमाणो णिबंधाणि ॥ १३ ॥ अधिवासे वा विवासे छेदविहीनो भूखा श्रामण्ये । श्रमणो विहरतुं नित्यं परिहरमाणो निबन्धान् ॥ १३ ॥ सर्व एव हि परद्रव्यप्रतिबन्धा उपयोगोपरञ्जलेन निरुपरागोपयोगरूपस्य श्रामण्यस्य छेदातेण कायव्वं उपदिष्टं तेन कर्तव्यम् । तेन प्रायश्चित्तपरिज्ञानसहिताचार्येग निर्विकारस्वसंवेदनभावनानुकूलं यदुपदिष्टं प्रायश्चित्तं तत्कर्तव्यमिति सूत्रतात्पर्यम् ।। ११-१२ ॥ एवं गुरुव्यवस्थाकथनरूपेण प्रथमगाथा, तथैव प्रायश्चित्तकथनार्थ गाथाद्वयमिति समुदायेन तृतीयस्थले गाथात्रयं गतम् । अथ निर्विकारश्रामण्यच्छेदजनकान्परद्रव्यानुबन्धान्निषेधयति-विहरदु विहरतु विहारं करोतु । स कः । समणो शत्रुमित्रादिसमचित्तश्रमणः णिचं नित्यं सर्वकालम् । किं कुर्वन्सन् । परिहरमाणो परिहरन्सन् । कान् । णिबंधाण चेतनाचेतनमिश्रपरद्रव्येष्वनुबन्धान् । क विहरतु । अधिवासे अधिकृतगुरुकुलवासे निश्चयेन स्वकीयशुद्धात्मवासे वा विवासे गुरुविरहितवासे वा । किं कृत्वा । सामण्णे निजशुद्वात्मानुभूतिलक्षगनिश्चयचारित्रे छेदविहूणो भवीय छेदविहीनो भूत्वा रागादिरहितनिजशुद्धात्मानुभूतिलक्षगनिश्चयचारित्रच्युतिरूपच्छेदरहितो भूत्वा । तथाहि-गुरुपार्श्वे यावन्ति शास्त्राणि तावन्ति पठित्वा तदनन्तरं गुरुं पृष्ट्वा च समशील(आचरण) बतलावे, उसको अंगीकार करे। इस प्रकार फिर संयमको स्थापन करना चाहिये। ऐसे यह अंतरङ्ग बहिरङ्गरूप दो प्रकारकी संयमका छेदोपस्थापन जानना योग्य है ॥ ११-१२ ॥ आगे मुनिपदके भंगका कारण परद्रव्योंके साथ संबंध है, इसलिये परके संबंधोंका निषेध करते हैं-[श्रामण्ये समताभावरूप यति अवस्थामें [छेदविहीनो भूत्वा] अंतरंग बहिरंग भेदसे दो तरहका जो मुनिपदका भंग है, उससे रहित होकर [नित्यं] सर्वदा (हमेशा) [निबन्धान् ] परद्रव्यमें इष्ट अनिष्ट सम्बन्धोके [परिहरमाणः] त्यागता हुआ [अनिवासे] आत्मामें आत्माको अंगीकार कर जहाँ गुरूका वास हो, वहाँपर अर्थात् उन पूज्य गुरुओंकी संगतिमें रहे, [वा] अथवा [विवासे] अथवा उससे दूसरी जगह रहकर [विहरतु] व्यवहार कर्म करे । भावार्थ-जो मुनि अपने गुरूओंके पास रहे, तब तो बहुत अच्छी बात है, अथवा अन्य जगह रहे, तब भी अच्छा है । परंतु सब जगह इष्ट अनिष्ट विषयोंमें सम्बन्ध ( राग द्वेष) का त्याग होना चाहिये, तथा मुनिपदवीके भंग होजानेका कारण परद्रव्यके साथ संबंध होना ही है, क्योंकि परद्रव्यके संबंधसे अवश्य ही उपयोग भूमिमें रागभाव होता है, जिस जगह रागभाव है, वहाँपर वीतरागभाव यतिपदका भंग होता ही है । इस कारण परद्रव्यके साथ संबंध होना उपयोगकी अशुद्धताके कारण हैं । इसलिये परद्रव्य संबंध मुनिको सर्वथा निषेध किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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