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प्रवचनसारः
२५३ ____ ततोऽपि श्रामण्यार्थी यथाजातरूपधरो भवति । तथाहि-अहं तावन्न किंचिदपि परेषां भवामि परेऽपि न किंचिदपि मम भवन्ति, सर्वद्रव्याणां परैः सह तत्त्वतः समस्तसंबन्धशून्यखात् । तदिह षड्द्रव्यात्मके लोके न मम किंचिदप्यात्मनोऽन्यदस्तीति निश्चितमतिः परद्रव्यखस्वामिसंबन्धानामिन्द्रियनोइन्द्रियाणां जयेन जितेन्द्रियश्च सन् धृतयथानिष्पन्नात्मद्रव्यशुद्धरूपखेन यथाजातरूपधरो भवति ॥ ४ ॥
अर्थतस्य यथाजातरूपधरत्वस्यासंसारानभ्यस्तखेनात्यन्तमप्रसिद्धस्याभिनवाभ्यासकौशलोपलभ्यमानायाः सिद्धेर्गमकं बहिरङ्गान्तरङ्गलिङ्गद्वैतमुपदिशति
जधजादरूवजादं उप्पाडिदकेसमंसुगं सुद्धं ।।
रहिदं हिंसादीदो अप्पडिकम्मं हवदि लिंगं ॥५॥ किंचिदपि परद्रव्यं मम नास्ति । इदि णिच्छिदो इति निश्चितमतिर्जातः । जिविंदो जादो इन्द्रियमनोजनितविकल्पजालरहितानन्तज्ञानादिगुणस्वरूपनिजपरमात्मद्रव्याद्विपरीतेन्द्रियनोइन्द्रियाणां जयेन जितेन्द्रियश्च संजातः सन् जधनादरूवधरो यथाजातरूपधरः व्यवहारेग नग्नत्वं यथाजातरूपं निश्चयेन तु स्वात्मरूपं तदित्थंभूतं यथाजातरूपं धरतीति यथाजातरूपधरः निर्ग्रन्थो जात इत्यर्थः ॥ ४ ॥ अथ तस्य पूर्वसूत्रोदितयथाजातरूपधरस्स निर्ग्रन्थस्यानादिकालदुर्लभायाः स्वात्मोपलब्धिलक्षणसिद्धेर्गमकं चिह्न बाह्याभ्यन्तरलिङ्गद्वयमादिशति-जधजादरूवजादं पूर्वसूत्रोक्तलक्षगयथाजातरूपेग निर्ग्रन्थत्वेन जातमुत्पन्नं यथाजातरूपजातम् । उप्पाडिदकेसमंसुगं केशश्मश्रुसंस्कारोत्पन्नरागादिदोषवर्जनार्थमुत्पाटितकेशश्मश्रुकम् । सुद्धं निरवद्यचैतन्यचमत्कारविसदृशेन सर्वसावधयोगेन रहितत्वाच्छुद्धम् । रहिदं हिंसादीदो शुद्धचैतन्यरूप[इति] इस तरह [निश्चितः] निश्चय करता हुआ [जितेन्द्रियः] पाँच इंद्रियोंका जीतनेवाला [यथाजातरूपधरः जातः] आत्माका जैसा कुछ स्वयंसिद्ध स्वरूप है, उसको धारण करता है । भावार्थ-जो पुरुष मुनि होना चाहता है, उसके प्रथम तो ऐसे भाव होते हैं, कि न मैं परद्रव्यका हूँ, और न मेरे परद्रव्य हैं, क्योंकि कोई द्रव्य अपना स्वरूप छोड़कर किसीसे मिलता नहीं है, सब जुदे जुदे हैं । इसलिये संसारमें जो नोकर्म, द्रव्यकर्म, भावकर्मरूप समस्त परभाव हैं, उनमें मेरा स्वरूप कुछ भी नहीं है । मैं सबसे भिन्न अविनाशी टंकोत्कीर्ण वस्तुमात्र हूँ, ऐसा निश्चय करके जितेंद्री होता हुआ जैसा कुछ मुनिका स्वरूप है, उसको धारण करता है ॥ ४ ॥ आगे अनादिकालसे लेकर कभी जिसका अभ्यास नहीं किया था, ऐसा जो यथाजातरूपधारक मुनिपद है, उसकी बतलानेवाली अंतरंग बहिरंग भेदकर लिंगकी द्वैतता दिखलाते हैं, अर्थात् जिन चिन्होंसे मुनि-पदवी अच्छी तरह जानी जावे, ऐसे द्रव्य भावलिंगोंको कहते हैं-[यथाजातरूपजातं] जैसा निग्रंथ अर्थात् परमाणुमात्र परिग्रहसे भी रहित मुनिका स्वरूप होता है, वैसे स्वरूपवाला [उत्पादितकेशश्मश्रुकं] लोंच करडाले हैं, शिर डाढ़ीके बाल जिसने ऐसा [शुद्धं] समस्त परिग्रहरहित होनेसे निर्मल [हिंसादितः रहितं] हिंसा आदि पाप योगोंसे रहित और [अप्रतिकर्म] शरीरके सम्हालनेकी अथवा सजानेकी क्रियाकर रहित, ऐसा
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