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________________ २५२ कुन्दकुन्दविरचितः [अ० ३, गा० ३सकललौकिकजननिःशङ्कसेवनीयवात् कुलक्रमागतक्रौर्यादिदोषवर्जितवाच्च कुलविशिष्टम् , अन्तरङ्गशुद्धरूपानुमापकबहिरङ्गशुद्धरूपलात् रूपविशिष्टं, शैशववार्धक्यकृतबुद्धिविक्रवखाभावाद्यौवनोदेकक्रियाविविक्तबुद्धिखाच वयोविशिष्टं, निःशेषितयथोक्तश्रामण्याचरणाचारणविषयपौरुषेयदोषखेन मुमुक्षुभिरभ्युपगततरखात् श्रमणैरिष्टतरं च गणिनं शुद्धात्मतत्वोपलम्भसाधकमाचार्य शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भासिद्धया मामनुगृहाणेत्युपसर्पन प्रणतो भवति । एवमियं ते शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भसिद्धिरिति तेन प्रार्थितार्थेन संयुज्यमानोऽनुगृहीतो भवति ॥ ३ ॥ अथातोऽपि कीदृशो भवतीत्युपदिशति णाहं होमि परेसिं ण मे परे णस्थि मज्झमिह किंचि। इदि णिच्छिदो जिदिंदो जादो जधजादरूवधरो ॥ ४ ॥ नाहं भवामि परेषां न मे परे नास्ति ममेह किंचित् । इति निश्चितो जितेन्द्रियः जातो यथाजातरूपधरः ॥ ४ ॥ चित्तश्रमणैरन्याचार्यैः गुणिं एवंविधगुणविशिष्टं, परमभावनासाधकदीक्षादायकमाचार्यम् । तं पि पणदो न केवलमाचार्यमाश्रितो भवति प्रगतोऽपि भवति । केन रूपेण । पडिच्छ मं हे भगवन् , अनन्तज्ञानादिजिनगुणसंपत्तिकारणभूताया अनादिकालेऽत्यन्तदुर्लभाया भावसहितजिनदीक्षायाः प्रदानेन प्रसादेन मां प्रतीच्छ स्वीकुरु चेदि अणुगहिदो न केवलं प्रणतो भवति, तेनाचार्येणानुगृहीतः स्वीकृतश्च भवति । हे भव्य, निस्सारसंसारे दुर्लभबोधिं प्राप्य .निजशुद्धात्मभावनारूपया निश्चयचतुर्विधाराधनया मनुष्यजन्म सफलं कुर्वित्यनेन प्रकारेणानुगृहीतो भवतीत्यर्थः ॥ ३ ॥ अथ गुरुणा स्वीकृतः सन्नीदृशो भवतीत्युपदिशति–णाहं होमि परेसिं नाहं भवामि परेषाम् । निजशुद्धात्मनः सकाशात्परेषां भिन्नद्रव्याणां संबन्धी न भवाम्यहम् । ण मे परे न मे संबन्धीनि परद्रव्याणि, णस्थि मज्झमिह किचिं नास्ति ममेह विकलतासे रहित हैं, और जवान अवस्थामें काम-विकारसे बुद्धिकी विकलता होती है, उससे भी रहित हैं। ऐसी अवस्थाकी विशेषता लिये हुए आचार्य कहे गये हैं, और समस्त सिद्धांतोक्त मुनिकी क्रियाके आचरण करने तथा करानेमें जो कभी पीछे दोष हुआ हो, उसको बतलानेवाले हैं, तथा गुगका उपदेश करनेवाले हैं । इसलिये अत्यंत प्रिय हैं । इत्यादि अनेक गुणोंकर शोभायमान जो आचार्य हैं, उनके पास जाकर यह दीक्षा(व्रत)का ग्रहण करनेवाला पुरुष पहले तो नमस्कार करता है, उसके बाद शुद्धात्मतत्त्वके साधक आचार्यको हाथ जोड़कर बिनती करता है, कि प्रभो, मैं संसारसे भयभीत हुआ हैं, सो मुझको शुद्धात्मतत्त्वकी सिद्धि होनेके लिये दीक्षा दो । तब आचार्य कहते हैं, कि तुझको शुद्धात्मतत्वकी सिद्धि (प्राप्ति ) करनेवाली यह भगवती-दीक्षा है। ऐसा कहकर वह मुमुक्षु आचार्यसे कृपायक्त किया जाता है ॥ ३ ॥ आगे फिर वह कैसा होता है, यह कहते हैं- [अहं] मैं [परेषां] शुद्ध चिन्मात्रसे अन्य जो परद्रव्य हैं, उनका [न भवामि] नहीं हूँ, और [न मे] न मेरे [परे] परद्रव्य हैं, इसलिये [इह] इस लोकमें [मम] मेरा [किंचित्] कुछ भी [नास्ति नहीं है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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