SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 416
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचनसारः २५१ शुद्धस्यात्मनस्वमसीति निश्चयेन जानामि तथापि खां तावदासीदामि यावत्वत्मसादात् शुद्धमात्मानमुपलभे । एवं ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारमासीदति च ॥ २॥ अथातः कीदृशो भवतीत्युपदिशति समणं गणिं गुणड्ढे कुलरूववयोविसिहमिट्टदरं । समणेहि तं पि पणदो पडिच्छ में चेदि अणुगहिदो ॥ ३ ॥ श्रमणं गणिनं गुणाढयं कुलरूपवयोविशिष्टमिष्टतरम् । श्रमणैस्तमपि प्रणतः प्रतीच्छ मां चेत्यनुगृहीतः॥३॥ ततो हि श्रामण्यार्थी प्रणतोऽनुगृहीतश्च भवति । तथाहि-आचरिताचारितसमस्तविरतिप्रवृत्तिसमानात्मरूपश्रामण्यत्वात् श्रमणम् , एवंविधश्रामण्याचरणाचारणप्रवीणखात् गुणाढयं, णिस्सारो” ॥ २ ॥ अथ जिनदीक्षार्थी भव्यो जैनाचार्यमाश्रयति-समणं निन्दाप्रशंसादिसमचित्तत्वेन पूर्वसूत्रोदितनिश्चयव्यवहारपश्चाचारस्य चरणाभरणप्रवीगत्वात् श्रमणम् । गुणड्डं चतुरशीतिलक्षगुणाष्टादशसहस्रशीलसहकारिकार गोत्तमनिजशुद्धात्मानुभूतिगुणेनाढचं भृतं परिपूर्णत्वाद् गुणाढ्यम् । कुलरूववयोविसिट्ठ लोकदुगुंछारहितत्वेन जिनदीक्षायोग्यं कुलं भण्यते । अन्तरङ्गशुद्धात्मानुभूतिरूपकं निर्ग्रन्थनिर्विकार रूपमुच्यते । शुद्धात्मसंवित्तिविनाशकारिवृद्धबालयौवनोदेकजनितबुद्धिवैकल्परहितं वयश्चेति तैः कुलरूपवयोभिर्विशिष्टत्वात्कुलरूपवयोविशिष्टम् । इदरं संमतम् । कैः । समणेहिं निजपरमात्मतत्त्वभावनासहितसमपरंतु तो भी तुझको तबतक अंगीकार करता हूँ जबतक कि तेरे प्रसाद ( कृपा )से शुद्ध स्वरूपको प्राप्त हो जाउँ । इस प्रकार ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्यरूप पाँच प्रकार आचारको अंगीकार करता है ॥ २ ॥ आगे इसके बाद कैसा होता है, यह कहते हैं-[तं] उस [गणिणं] परम आचार्यके पास जाकर [प्रणतः] नमस्कार करता हुआ [चापि] और निश्चयकर [मां] हे प्रभो, मुझको [प्रतीच्छ] शुद्धात्म तत्त्वकी सिद्धिकरके अंगीकार करो, [इति] इस प्रकार बिनती करता हुआ [अनुगृहीतः] आचार्य दीक्षाका उपदेश देते हैं, और अंगीकार करते हैं । वे आचार्य कैसे हैं, कि [श्रमणं] पंचाचारके आचरण करनेमें तथा करानेमें प्रवीण अर्थात् साम्यभावलीन हैं, [गुणाढ्यं] यतिपदवीका आप आचरण करनेमें अन्यको आचरण करानेमें प्रवीण होनेसे गुणोंकर परिपूर्ण हैं, [कुलरूपवयोविशिष्टं] कुलसे, रूपसे, उमरसे, विशेषता लियेहुए (उत्कृष्ट ) है, और वे [श्रमणैः] मुक्तिके इच्छुक महामुनियोंकर [इष्टतरं] अतिप्रिय हैं । भावार्थ-जो उत्तम कुलमें उत्पन्न हुआ है, उसकी सब लोक निःशंक होते हुए सेवा करते हैं, जो उत्तम कुलोत्पन्न होगा, उसके कुलकी परिपाटीसे ही क्रूर भावादिक दोषोंका अभाव निश्चयसे होगा। इससे कुलको विशेषता लिये हुए ही आचार्य होते हैं, आचार्यके बाहरसे रूपकी विशेषता ऐसी है, कि देखनेसे उनमें अंगरंगकी शुद्ध अनुभव-मुद्रा पायी जाती है, तो भी बाहरके शुद्ध रूपकर मानों अंतरंगकी शुद्धता बतलाई जारही है, इस कारण रूपकी विशेषताकर सहित होते हैं, तथा वय (उमर) करके विशेषता इस तरह है, कि बालक, वृद्ध अवस्थामें बुद्धिकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy