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________________ २५० कुन्दकुन्दविरचितः [अ० ३, गा० २मुपलभे । अहो मोक्षमार्गप्रवृत्तिकारणपश्चमहाव्रतोपेतकायबामनोगुप्तीर्याभाषेषणादाननिक्षेपणप्रतिष्ठापनसमितिलक्षणचारित्राचार, न शुद्धस्यात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि तथापि खां तावदासीदामि यावत्वत्प्रसादात् शुद्धमात्मानमुपलभे । अहो अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशप्रायश्चित्तविनयवयात्त्यस्वाध्यायध्यानव्युत्सर्गलक्षणतपआचार, न शुद्धस्यात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि तथापि खां तावदासीदामि यावत्वत्मसादात् शुद्धमात्मानमुपलभे। अहो समस्तेतराचारप्रवर्तकस्वशक्त्यनिगृहनलक्षणवीर्याचार, न पाण्डवादयो राजान एव जिनदीक्षां गृह्णन्ति, तत्परिवारमध्ये यदा कोऽपि मिथ्यादृष्टिर्भवति तदा धर्मस्योपसर्ग करोतीति । यदि पुनः कोऽपि मन्यते गोत्रसंमतं कृत्वा पश्चात्तपश्चरणं करोमि तस्य प्रचुरेण तपश्चरणमेव नास्ति कथमपि तपश्चरणे गृहीतेऽपि यदि गोत्रादिममत्वं करोति तदा तपोधन एव न भवति । तथाचोक्तम्- “जो सकलणयररजं पुव्वं चइऊण कुणइ य ममत्तिं । सो णवरि लिंगधारी संजमसारेण करचुका, जब इसके स्वपर विवेकरूप भेदविज्ञान प्रगट हुआ था, और तभी टंकोत्कीर्ण निजभाव भी अंगीकार किये । इसलिये सम्यग्दृष्टीको न तो कुछ त्यागनेको रहा है और न कुछ स्वीकार करनेको ही है। परंतु वही सम्यग्दृष्टि जीव चारित्रमोहके उदयसे शुभ भावोरूप परिणमन करता है, उस परिणमनकी अपेक्षा त्यागता है, और अंगीकार करता है । यही कथन दिखलाते है-प्रथम ही गुणस्थानोंकी परिपाटीके क्रमसे अशुभ परिणतिकी हानि होती है, उसके बाद धीरे धीरे शुभ परिणति भी छूटती जाती है। इस कारण पहले तो वह गृहवास कुटुम्बका त्यागी होता है, पीछे शुभ रागके उदयसे व्यवहार रत्नत्रयरूप पंचाचारोंको अंगीकार करता है । यद्यपि ज्ञानभावसे समस्त ही शुभाशुभ क्रियाओंका त्यागी है, परंतु शुभ रागके उदयसे ही पंचाचारोको ग्रहण करता है। उसकी रीति बतलाते हैं-हे काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिह्नव, अर्थ, व्यंजन, तदुभयरूप आठ प्रकार ज्ञानाचार; मैं तुझको जानता हूँ, कि तू शुद्धात्म स्वरूपका निश्चय करके स्वभाव नहीं है, तो भी मैं तबतक अंगीकार करता हूँ, जबतक कि तेरे प्रसादसे शुद्धात्माको प्राप्त हो जाऊँ । अहो निःशंकितत्व, निःकांक्षितत्व, निर्विचिकित्सत्व, निर्मूढदृष्टित्व, उपबंहण, स्थितिकरण, वात्सल्य, प्रभावनास्वरूप, दर्शनाचार; तू शुद्धात्माका स्वरूप नहीं है, ऐसा मैं निश्चयसे जानता हूँ, तो भी तुझको तबतक स्वीकार करता हूँ, जबतक तेरे प्रसादसे शुद्ध आत्माको प्राप्त हो जाऊँ । अहो मोक्षमार्गकी प्रवृत्तिके कारण पंच महाव्रत, तीन गुप्ति, पाँच समितिरूप तेरह प्रकार चारित्राचार; मैं जानता हूँ, कि निश्चयसे तू शुद्धात्माका स्वरूप नहीं है, तथापि तबतक अंगीकार करता हूँ, जबतक कि तेरे प्रसादसे शुद्धात्माको प्राप्त होऊँ । अहो अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन, कायक्लेश, प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान, व्युत्सर्गस्वरूप बारह प्रकार तपआचार; मैं निश्चयसे जानता हूँ, कि तू शुद्धात्माका स्वभाव नहीं है, परंतु तो भी तुझको तबतक स्वीकार करता हूँ, जबतक तेरे प्रसादसे शुद्धस्वरूपको प्राप्त होजाऊँ । अहो समस्त आचारकी प्रवृत्तिके बढ़ानेमें स्वशक्तिके प्रगट करनेवाले वीर्याचार; मैं निश्चयसे जानता , कि तू शुद्धात्माका स्वरूप नहीं है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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